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________________ हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावांण । हिंडदि घोरमपार संसार मोहसं छणो ॥ पुण्य और पाप में कोई अन्तर नहीं है, जो यह नहीं मानता है वह मोह से आच्छादित है, और घोर संसार में परिभ्रमण करता है। दूसरे शब्दों में पुण्य-पाप आत्मा के धर्म नहीं हैं, दोनों एक समान हैं, ऐसा होने पर भी जो नहीं मानता वह मिथ्यात्व से ग्रसित है और अभव्य की अपेक्षा इस संसार में भ्रमण करता रहता है। सोवणियं पि णियलं बंधदि कालायंस पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कद कम्मं ॥ - समयसार 146 जैसे पुरुष को सोने की बेड़ी भी बाँधती है और लोहे की भी। ठीक उसी प्रकार शुभ और अशुभ दोनों कर्म भी जीव को बाँधते हैं। दूसरे शब्दों में बन्धन भाव की अपेक्षा पुण्य-पाप में परमार्थतः कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार आत्मा में, स्व में, स्थिर होने के लिए पुण्य-पाप को एक समान समझे बिना सम्यक्चारित्र प्रकट नहीं हो सकता । स्वरूपाचरण - पर वस्तु में होने वाली आत्मा की प्रवृत्ति मिटकर स्व में ज्ञानादि सम्पत्ति प्रकट हो जाती है तब उसे स्वरूपाचरण कहते हैं। स्वरूपाचरण को स्पष्ट करते हुए पं दौलतराम जी कहते हैं कि जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहां। चिद्भाव कर्म चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ ।। तीनों अभिन्न अखिन्न सुध, उपयोग की निश्चल दशा । प्रगटी जहाँ दृग- ज्ञान व्रत, ये तीनधा एकै लसा ॥ जिस आत्मध्यान की अवस्था में ध्यान, ध्याता और ध्येय का कोई भेद नहीं रहता है, तथा चैतन्य भाव ही कर्म, चेतना ही कर्ता और चेतना ही क्रिया होती है, वही स्वरूपाचरण चारित्र है। इसी के द्वारा आत्मा में स्थिर हुआ जा सकता है। यहाँ कर्ता, कर्म और क्रिया-ये तीनों भाव अभिन्न तथा एक दूसरे से निर्बाध हो जाते हैं और शुद्धोपयोग की स्थिर अवस्था प्रकट हो जाती है। इस प्रकार जहाँ सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र- ये तीनों एक रूप होकर प्रकाशमान हो जाते हैं, ऐसी अवस्था का नाम ही स्वरूपाचरण चारित्र है। पं. जयचन्द जी बारह भावना में इस प्रकार कहते हैं कि निजस्वरूप में लीनता, निश्चय संवर जानि । समिति गुप्ति संजम धरम, धरै पाप की हानि ॥८ ॥ 249
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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