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करते रहते हैं। सराग सम्यक्त्व का लक्षण प्रशम अर्थात् शान्तिपना, संवेग अर्थात् जिनधर्म की रुचि तथा जगत् से अरुचि अनुकम्पा अर्थात् परजीवों को दुःखी देखकर दयाभाव और आस्तिक्य अर्थात् देव-गुरु-धर्म की तथा छह द्रव्यों की श्रद्धा इन चारों का होना वह व्यवहार सम्यक्त्वरूप सराग सम्यक्त्व है और वीतराग सम्यक्त्व जो निश्चय सम्यक्त्व है वह निज शुद्धात्मा अनुभूतिरूप वीतराग चारित्र से तन्मयी है। इस प्रकार गृहस्थ अवस्था में इनके सराग सम्यकत्व ही है और जो सराग सम्यक्त्व है वह व्यवहार ही है, ऐसा जानो ।
निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि सम्यक्चारित्र तभी धारण हो सकता है जब मोक्षाभिलाषी वाह्य बाधाओं को, सभी प्रतिकूलताओं को समता भाव से सहे और अपने अन्तरंग
कषायों का निग्रह, पाँचों इन्द्रियों पर विजय आदि प्राप्त करने के लिए अपने पूर्व उपार्जित कर्मों का शमन करे। जब यह दोनों प्रकार का चारित्र वाह्य व अन्तरंग रूप से प्रकट होता है, धारण किया जाता है, तभी सम्यक्चारित्र रूप होने से मोक्षमार्ग बनता है। इस प्रकार आगे जाकर ये ही मार्गमोक्ष का कारण बनता है। यही इस समता- शमता रूप सोपान का सार है।
सम्यक्चारित्र का चौथा सोपान - आत्मा में स्थिरता
सम्यक्चारित्र की पराकष्ठा आत्मा में स्थिरता के बिना नहीं हो सकती। शुद्धोपयोग ही आत्मा में स्थिरता को लगाता है। पं. बनारसीदास जी कहते हैं कि
सील तप संजय विरति दान पूजादिक, अथवा असंजय कषाय विषै भोग हैं। कोऊ शुभरूप कोऊ अशुभ स्वरूप मूल, वस्तु के विचारत दुविध कर्मरोग हैं । ऐसी बंधपद्धति बखानी वीतराग देव, आत्म धरम मै करम त्याग जोग है। भौ जल- तरैया राग-द्वेष को हरैया महा, मोख को करैया एक झुद्ध उपयोग है ।
ब्रह्मचर्य, तप, संयम, व्रत, दान, पूजा आदि अथवा असंयम, कषाय, विषय-भोग आदि इनमें कोई शुभ और कोई अशुभ हैं आत्म स्वभाव की दृष्टि से दोनों ही कर्म रूपी रोग हैं। भगवान वीतराग देव ने दोनों को बंध की श्रेणी में रखा है। आत्मस्वभाव की प्राप्ति में दोनों त्याज्य हैं। एक शुद्धोपयोग ही संसार-समुद्र से तारने वाला, राग-द्वेष नष्ट करने वाला और परमपद को देने वाला है।
मोक्षमार्ग में पुण्य-पाप समान- मोक्षमार्ग सम्यक्चारित्र के धारण करने पर ही बनता है जो मोक्षाभिलाषी समस्त पुण्य पाप को एक समान समझता है वही सम्यक्चारित्र को धारण करने वाला है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य प्रवचनसार में कहते हैं कि
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