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पर खडे हैं जहाँ से हम दोनों ने विदा ली थी। मैं सोचता रहा कि मैं अपना साम्राज्य बढ़ा रहा हूँ और इसलिए अहंकारी बन रहा हूँ। किन्तु तुम तो मुझसे भी कहीं अधिक बड़े अहंकारी बन चुके हो। क्या यह सब तुम्हारी तपस्या का ही फल है?" राजा बहुत दुखित होता है साधु की यह दशा देखकर और विचारता है कि जब अहंकार पर अर्थात् मान कषाय पर यह साधु विजय नहीं पा सका तो सामान्य गृहस्थों की तो बात ही क्या।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अहंकार जितना बढ़ता जाता है मानव उतना ही नीचे गिरता जाता है। अतः कषाएँ गिराने का कार्य करती हैं। अतः इन कषायों को सम्पूर्ण पुरुषार्थ से दबा देना चाहिए, इनका शमन कर अपना पूर्ण सम्यक्चारित्र प्रकट करना चाहिए। ___ चौथे गुणस्थान से स्वसंवेदन होने लगता है- भटके हुए संसारी जीवों को आत्मध्यान के सन्दर्भ में आचार्य योगीन्द देव कहते हैं कि
अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ। मुणि सण्णाणे णाणमउ जो परमप्प-सहाउ।।
-परमात्मप्रकाश 12 हे आत्मन्! तू आत्मा को तीन प्रकार का जानकर बहिरङ्ग स्वरूप भाव को शीघ्र ही छोड़ दे, और जो परमात्मा का स्वभाव है। उसे स्वसंवेदन ज्ञान से अंतरात्मा होता हुआ जान। वह स्वभाव स्वसंवदेन केवलज्ञान कर परिपूर्ण है। दूसरे शब्दों में जो वीतराग स्वसंवेदन कर परमात्मा का पाना था, वही ध्यान करने योग्य है। ___ स्वसंवेदन ज्ञान प्रथम अवस्था में चौथे-पाँचवें गुणस्थान वाले गुण के भी होता है, वहाँ पर यह सराग देखने में आता है, इसलिए राग सहित अवस्था के निषेध के लिए वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान ऐसा कहा गया है। रागभाव है इसलिए वह कषायरूप है, इस कारण जब तक मिथ्यादृष्टि के अनन्ताबुंधी कषाय है, तब तक तो बहिरात्मा है, उसके स्वसंवेदन ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान सर्वथा ही नहीं हैं, व्रत और चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दृष्टि को मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी के अभाव होने से सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परन्तु कषाय की तीन चौकड़ी बाकी रहने से द्वितीया के चन्द्रमा के समान विशेष प्रकाश नहीं होता, और श्रावक के पाँचवें गुणस्थान में दो चौकड़ी का अभाव है। इसलिए राग भाव कुछ कम हुआ, वीतराग भाव बढ़ गया, इस कारण स्वसंवेदन ज्ञान भी प्रबल हुआ। मुनि के तीन चौकड़ी का अभाव है, इसलिए राग भाव तो निर्बल हो गया तथा वीतराग भाव प्रबल हुआ, वहाँ पर स्वसंवेदन ज्ञान का अधिक प्रकाश हुआ, परन्तु चौथी चौकड़ी बाकी है, इसलिए छठे गुणस्थान वाले मुनि सराग संयमी हैं। सातवें गुणस्थान में चौथी चौकड़ी मंद हो जाती है, वहाँ पर आहार-विहार क्रिया नहीं होती, ध्यान में आरुढ़ रहते हैं। सातवें से छठे गुणस्थान में आवें, तब वहाँ पर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार छट्ठा-सातवाँ गुणस्थान
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