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________________ अहंकारी साधु एक बार एक साधु गहन साधना एवं तपस्या के बल पर देश में बहुत प्रसिद्ध हो गया। पर्याप्त संख्या में दर्शनाभिलाषी आने लगे और उसकी, उसके गुणों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे। साधु की तपस्या की ख्याति सर्वत्र फैल गयी। बहुत दिनों तक संयमपूर्वक दबाई हुई कषायों को वह अधिक नहीं दबा सका। उसके मन में अहंकार अर्थात् मान कषाय पनपने लगी। मानव दान के माध्यम से लोभ पर, ब्रह्मचर्य के द्वारा काम पर, क्षमा के द्वारा क्रोध पर विजय प्राप्त कर सकता है। एक-एक अवगुण को समाप्त कर सकता है, किन्तु अहंकार इसमें सबसे प्रबल है। इस पर विजय प्राप्त करना बहुत कठिन है। दानी कहता है "मैंने" दान दिया, कोई धर्मशाला का निर्माण कराता है तो कहता है "मैंने बनाया है", पत्थर लगाओ मेरे नाम का । कोई भी पुण्य के कार्य करता है तो यह "मैं" के रूप में " अहंकार" नहीं छूट पाता। यह मान कषाय का रूप है, जो साधु महाराज के हृदय में पनपने लगा कि मैं बहुत बड़ा तपस्वी हूँ। जब अहंकार पनपता है तब विवेक खोने लगता है, आत्मा जाग्रत अवस्था से सुप्तावस्था में जाने लगती है और उसमें अनेक बुराईयाँ आ घेरती हैं। यही साधु के संग भी हो रहा था । एक दिन नगर का राजा साधु की तपस्या से प्रसन्न हो साधु को अपने नगर आने की विनम्र प्रार्थना करता है। साधु महाराज कुछ ना-नुकुर के उपरान्त नगर पधारते हैं। राजा उनके स्वागत में सम्पूर्ण नगर में प्रवेश द्वार बनवाता है, सड़कों को मखमली कालीन से पाट देता है, चारों ओर इत्र छिड़कवाता है। स्वागत की सम्पूर्ण तैयारी हो जाती है, अपार भीड़ जुट जाती है, किन्तु इसी दौरान कोई नगरवासी साधु के पास जाकर कहता है कि - "महाराज ! हमें तो लगता है कि राजा ने अपने वैभव के प्रदर्शन से आपकी तपस्या को चुनौती दी है, आपको खुलेआम ललकारा है"। अब साधु महाराज सोचते हैं-" अच्छा ऐसी बात है हम भी देख लेंगे उसको वैभव को "। ऐसे पूर्वाग्रह से युक्त वे साधु नगर को आते हैं। नगरवासी उनका अपूर्व स्वागत करते हैं, किन्तु सभी साधु महाराज के पैर घुटनों तक कीचड़ में सने देखकर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। साधु महाराज अत्यन्त शान से उन मखमली कालीनों पर पाँव पटक-पटक कर चल रहे हैं, कीचड़ के छींटों एवं पाँव के चिह्नों से कालीन गन्दे हो जाते हैं। राजा भीड़ में कुछ पूछता नहीं किन्तु एकान्त में पूछता है कि-" स्वामी क्या मार्ग में आपको किसी संकट का सामना करना पड़ा ? आपके चरण कमलों में इतना ढेर सारा कीचड़ कहाँ से लग गया?" साधु ने अत्यन्त गर्व से कहा-'न कोई घटना घटी, न कोई संकट आया । तुम अपने आप को समझते क्या हो ? सड़कों पर मखमल बिछाकर, इत्र छिड़कवा कर तुम अपने तुच्छ वैभव का प्रदर्शन करने में संकोच का अनुभव नहीं करते तो क्या हम साधु लोग भी कीचड़ से भरे पैरों की छाप उन पर नहीं लगा सकते?" राजा यह सुन साधु को तत्काल गले लगा लेता है और कहता है- "मित्र, मैं तो सोचता था कि तपश्चर्या के बाद तुम्हारा मूल स्वभाव नष्ट हो गया होगा, किन्तु हम दोनों तो उसी स्थान 246
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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