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1. अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया लोभ कषाय-जब साधक जीव शमता द्वारा कर्मों का
उपशम या क्षयोपशम करता है, तब सम्यक्त्व प्रकट होता है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि
जिणणाणदिविसुद्धं पढम सम्मत्तचरणचारित्तं।
विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि।। सम्यक्त्व का आचरण स्वरूप चारित्र है, वह जिनदेव के ज्ञान, दर्शन, श्रद्धान से किया हुआ शुद्ध है। दूसरा संयम का आचरण चारित्र है, वह भी जिनदेव के ज्ञान से दिखाया हुआ
गोपालदास वरैया ने इसको स्वरूपाचरण कहा है, आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने द्रव्यसंग्रह की 34वीं गाथा एवं 45वीं गाथा पर ब्रह्मदेव सूरी ने भी इसका कथन किया है।
परमात्मप्रकाश में भी ऐसा ही कथन आया है। 2. अप्रत्याख्यान क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय-यह कषाय श्रावक के अणुव्रत और
ग्यारह प्रतिमाएँ नहीं प्रकट होने देती। जब शमता द्वारा कर्मो का उपशम या क्षयोपशम किया
जाता है, तब श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ प्रकट होने लगती हैं। 3. प्रत्याख्यान क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय-यह कषाय मुनिधर्म के अन्तर्गत 28 मूलगुणों
को नहीं प्रकट होने देती। किन्तु जब इस कषाय को दबा दिया जाता है, कर्मों का उपशम या क्षयोपशम किया जाता है तो जीव दिगम्बर मुनि हो जाता है, अर्थात् महाव्रत धारण कर
लेता है। 4. संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय-यह कषाय यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होने
देता। संज्वलन कषाय का उदय छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत मन्द, मन्दतर और मन्दतम तारतम्य से भाव चलते हैं। यहाँ बात शमता की चल रही है, जब जीवात्मा भाव की उत्तमता के द्वारा पहले गुणस्थान से उठता है तब चौथे में सम्यक्त्व प्राप्त करता है, पाँचवें में श्रावक के अणुव्रत धारण करता है, और सातवें में दिगम्बर मुनि बनता है व 28 मूलगुण पालता है छठे गुणस्थान सातवाँ गुणस्थान के बाद होता है। कषायें किस प्रकार जीव को उठाती हैं या गिराती हैं अर्थात् कषायों का शमन करने के उपरान्त जीव किस प्रकार चारित्रवान बन जाता है, कषायों से ग्रसित जीव किस प्रकार चारित्रिक पतन को प्राप्त हो जाता है, यह निम्न दृष्टान्त से भी स्पष्ट हो जाता है।
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