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________________ जो द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थो को-इन तीनों को अपने से पृथक करके समस्त अन्य द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करते हैं, वे मुनिराज निश्चय से जितेन्द्रिय हैं। पाँच इन्द्रियों को जीतने वाले जिन हैं। भावार्थ यह है कि स्पर्श आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय तो ज्ञेय हैं और उनको जानने वाली द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय रूप स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियां हैं और उनका जीव के साथ जो संकर है, अर्थात् संयोग सम्बन्ध है, वही दोष है, उस दोष को जो परम समाधि के बल से जीत लेता है वही जिन है। इस बात को दूसरे प्रकार से समझाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आद। तं जिदमोह साहं परमट्ठवियाणया विन्ति। - समयसार, 32 जो मोह को दबाकर, शमन कर, ज्ञान स्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, परमार्थ के जानने वाले उस जीव (मुनिराज) को मोह को जीतने वाला अर्थात् जिन कहते हैं। दूसरे शब्दों में भाव्य (संसारी जीव) और भावका (मोहकर्म) इन दोनों में जो संकर दोष है, उसका परिहार करने अथवा उपशम श्रेणी की अपेक्षा आत्मजित मोह है, उसको जीतने के लिए जो पुरुष उदय में आये हुए मोह को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीनों की एकाग्रतारूप निर्विकल्प समाधि के बल से जीतकर अर्थात दबाकर, शमन करके, शुद्ध ज्ञान गुण के द्वारा अधिक अर्थात् परिपूर्ण अपनी आत्मा को मानता है, जानता है, और अनुभव करता है, उस जीव (मुनिराज) को परमार्थ के जानने वाले मोह से रहित जिन कहते हैं। विशेष-इस गाथा में एक मोह का ही नाम लिया गया है, उसमें मोह पद को बदलकर उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नो कर्म, मन, वचन, काय-ये ग्यारह और श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन-ये पाँच इन्द्रियां इस गाथा के द्वारा पृथक-पृथक लेकर व्याख्यान किया गया है। वह दूसरे भाग में है वहाँ से समझना चाहिए। कषाय शमता द्वारा कषायों का निग्रह- क्रोध, मान, माया, लोभ रूप आत्मा के विभाव परिणामों को कषाय कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो आत्मा के सम्यकत्व, देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यात चारित्ररूप परिणामों को घातता है, उसे कषाय कहते हैं। प्रत्येक कषाय के चार-चार भेद माने गये हैं-(1) अनन्तानुबन्धी, (2) अप्रत्याख्यान, (3) प्रत्याख्यान, और (4) संज्वलन। 244
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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