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ख. पदस्थध्यान- पंच परमेष्ठी के वाचक 35, 16, 6, 5, 4, 2 और 1 अक्षर वाले णमो अरिहंताणं आदि णमोकार मंत्र का ध्यान करना (पूरे णमोकार मंत्र में-35 अक्षर; अरहन्त-सिद्ध-आचार्य - उवज्झाय - साहू में 16 अक्षर; अरहंत सिद्ध में 6 अक्षर; असिआउसा में - 5 अक्षर; अरहन्त में 4 अक्षर; सिद्ध में 2 अक्षर; और ॐ में - 1 अक्षर होता है), तथा किसी अन्य गुण आदि का आश्रय लेकर ध्यान करना पदस्थध्यान है।
ग. रूपस्थध्यान - समवशरण में चार घातिया कर्म रहित, अनन्त चतुष्टय संयुक्त, सप्त धातु रहित, परमौदारिक शरीर में स्थित और अष्टादश दोष रहित गंधकुटी में स्फटिक मणि सिंहासन के मध्य अत्यन्त कोमल पवित्र, अनुपम, शत दल वाले रक्त की कणिका के मध्य में चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में, शान्ति स्वरूप, जिनेन्द्र भगवान् स्थित हैं। अपने मन में ऐसा अरहन्त भगवान् का स्वरूप क्रमशः मुक्त होने तक विचारना रूपस्थध्यान है।
घ. रूपातीतध्यान- अष्टकर्म और औदारिक शरीर रहित शरीर से किंचित न्यून पुरुष के आकार मात्र धारक लोकाग्रभाग में स्थित अनन्त गुणों के भण्डार से सिद्ध परमात्मा का जो ध्यान है वह रूपातीतध्यान है। उपर्युक्त चार प्रकार के ध्यान के विपरीत तप करना धर्म नहीं, तीर्थ को जाना धर्म नहीं, मन्दिर में घंटा बजाना धर्म नहीं, नहाना-धोना धर्म नहीं, नग्न रहना धर्म नहीं है। रूपातीतध्यान वाह्य में समता और अन्तरंग में शमता को धारण किये बिना संभव नहीं हो सकता है। ये छः प्रकार के अन्तरंग तप तभी तपे जा सकते हैं जब समस्त सांसारिक इच्छाओं का शमन हो चुका हो, अन्यथा नहीं।
समता द्वारा पञ्चेन्द्रिय विजय
समता द्वारा ही मोक्षमार्गी पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है। इच्छाओं का शमन कर अपनी आत्मा में सम्यक् चारित्र प्रकट करता है। इसको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि
जो इन्दिये जिणित्ता पाणसहावाधियं मुणदि आदं । तं खलु जिदिदियं ते भणन्ति जे णिच्छिदा साहू ॥
- समयसार 31
जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञान स्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक अपने आत्मा को जानते हैं, उन्हें तथा जो निश्चय नय में स्थित साधु हैं वे वास्तव में जितेन्द्रिय हैं। दूसरे शब्दों में
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