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मन को अपने वश में कार तथा शाम और भागी स, पाँच इन्द्रियाक विषयों के सेवन सब विरक्त
हे आत्मन्! सबसे पहले तू प्रशम (मन्द कषाय से उत्पन्न अपूर्व शान्ति) का आलम्बन कर, मन को अपने वश में कर तथा काम और भोगों से, पाँच इन्द्रियों के विषयों के सेवन से विरक्त होकर धर्मध्यान में प्रवृत्त हो। धर्मध्यान के चार भेद-आचार्य उमास्वामी जी कहते हैं कि____ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्॥
- तत्वार्थसूत्र-अ. 1/36 धर्मध्यान के चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय इनका चिन्तन करना, धर्मध्यान है। चारों धर्मध्यानों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है1. आज्ञाविचय धर्मध्यान-सर्वज्ञ देव की आज्ञानुसार अपने सिद्धान्त आगम में प्रसिद्ध वस्तु
के स्वरूप का चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। इसके अन्तर्गत सर्वज्ञदेव की आज्ञा, उपदेश का विचय अर्थात् विचार अर्थात् चिन्तन किया जाता है। अपायविचय धर्मध्यान-संसारी जीवों के दुःख का और उससे छूटने के उपाय का विचार करना, अपायविचय धर्मध्यान कहलाता है। मिथ्यात्व, अज्ञान, मिथ्याचारित्र के निमित्त से यह जीव अनादि काल से संसार समुद्र में गोते लगा रहा है और वचनातीत दु:खों को भोगता हुआ अत्यन्त दु:खी हो गया है। उस दुःख का विनाश करने वाला एक रत्नत्रय ही है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय ही मिथ्यात्व, अज्ञानादि अन्य कर्मो का क्षय कर शान्ति-सुख का देने वाला है। ऐसा चिन्तन अपाय विचय में किया जाता है। विपाकविचय धर्मध्यान-कर्म के फल का विचार करना, विपाकविचय धर्मध्यान है। दूसरे शब्दों में संसार के समस्त प्राणियों के पूर्वोपार्जित अपने शुभाशुभ कर्मों का जो सुख:दुःखादि रूप फल उदय में आता है, उसे विपाक कहते हैं। यह सम्पूर्ण जीवों के क्षण-क्षण में उदय
में आता है। इस प्रकार का चिंतन करना विपाकविचय धर्मध्यान कहलाता है। 4. संस्थानविचय धर्मध्यान-लोक के आकार का विचार करना, चिंतन करना, संस्थान
विचय धर्मध्यान कहलाता है। सब ओर, ऊँचे-नीचे, पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण अनन्तानन्त प्रदेशवाला आकाश है। इसका कहीं पर भी अन्त नहीं है। वह स्वप्रतिष्ठित है, किसी के आधार पर नहीं है, अपने ही आश्रय है। उसके बीच में यह लोक स्थित है, ऐसा सर्वज्ञ देव ने वर्णन किया है। यह किसी अल्पज्ञ का वचन नहीं है। इस प्रकार का चिंतन संस्थानविचय धर्मध्यान में किया जाता है। यह धर्मध्यान चार प्रकार का हैक. पिण्डस्थध्यान-जीव का आकार विचार कर दृष्टि को संकोच कर जम्बूद्वीप का विचार करना, फिर भरत क्षेत्र का, आर्यखण्ड का, निजदेश, राज्य, नगर, गृह, फिर अपने शरीर का विचार करना, पिण्डस्थध्यान कहलाता है।
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