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4. स्वाध्याय तप - आलस्य त्याग कर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है। दूसरे शब्दों मे चामुण्डराय चारित्रसार में लिखते हैं कि- स्वस्मै हितोऽध्यायः स्वाध्यायः ॥
अपने आत्मा का हित करने वाला अध्ययन स्वाध्याय है। यह पाँच प्रकार का माना गया है - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्म उपदेश |
5. व्युत्सर्ग तप- वाह्य में क्षेत्र, वस्तु आदि 10 प्रकार का परिग्रह और अन्तरंग में मिथ्यात्व चार कषाय आदि 14 प्रकार का परिग्रह का त्याग करके, आत्मस्वरुप में लीन रहना, व्युत्सर्ग तप है। इसे कायोत्सर्ग तप भी कहते हैं, क्योंकि चौबीस प्रकार के परिग्रह के त्यागी मुनिराज शरीर से ममत्व छोड़कर आत्मध्यान करते हैं।
6. ध्यान तप-मन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। अनिश्चल ज्ञान का नाम ध्यान है। ध्यान में अन्य सब पदार्थों की चिन्ता को रोककर केवल एक पदार्थ का विचार किया जाता है। यह भेद रूप चार प्रकार का होता है- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और केवलध्यान । ध्यान समता - शमता की पूर्णता का फल है- बाह्य में समता और अन्तरंग में शमता लिए हुए, जब जीव अपने आत्मा का ध्यान करता है तो उसे अनुपम आनन्द का अनुभव होता है। आचार्यो ने ध्यान को दो भागों में विभक्त किया है
अप्रशस्त ध्यान - जिस ध्यान से आत्मा में स्व और पर के अकल्याण रूप दुःख, क्लेश, संताप, हिंसादि पाप और क्रोधित कषाओं का आविर्भाव हो, उसे अप्रशस्त ध्यान कहते हैं। यह ध्यान आत्मा का पतन करने वाला है। इस ध्यान के अन्तर्गत आर्त और रौद्र ध्यान आते हैं। ये ध्यान संसार का कारण बनते हैं। इनका यहाँ वर्णन करना न्यायोचित नहीं है, क्योंकि प्रकरण सम्यक्चारित्र का चल रहा है।
प्रशस्त ध्यान - जिस ध्यान से आत्मा में साम्यभाव, निर्मलता और शान्ति आदि आत्मीय गुणों का विकास होता है, वह प्रशस्त ध्यान कहलाता है। इस ध्यान से ही कर्मों का क्षय होता है और आत्मा की यथार्थ अवस्था प्रकट होती है। इस ध्यान के अन्तर्गत धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान आते हैं। ये दोनों ध्यान संहनन वाले जीवों को ही होता है जो आज के पंचम काल में संभव नहीं है। हीन संहनन वालों के आज धर्मध्यान हो सकता है, अन्यथा जीव को आर्त्त और रौद्र ध्यान ही बने रहते हैं। इस प्रकार यहाँ केवल धर्मध्यान का कुछ विस्तृत वर्णन किया जाता है
धर्मध्यान- धर्म सहित ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं। आचार्य शुभचन्द्र महाराज कहते हैं कि
अथ प्रशममालम्ब्य विधाय स्ववशं मनः । विरज्य कामभोगेषु धर्मध्यानं निरूपय ।।
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- ज्ञानार्णव-अ. 27