________________
शमता के अन्तर्गत आने वाला चारित्र-अन्तरंग क्रिया से सम्बन्धित जितना भी चारित्र है वह इसके अन्तर्गत आता है। तप के अन्तर्गत छह अन्तरंग तप, पाँच इन्द्रिय विजय, कषायों का निग्रह आदि इसमें आते हैं। इन सबका विश्लेषण निम्न प्रकार है:अन्तरंग तप के छः भेद-आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में लिखा है
पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं।
झाणं च विउस्सग्गो अभतरओ एसो॥ प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये अन्तरंग तप के छ: भेद हैं। इनका वर्णन निम्न है1. प्रायश्चित-जिस तप से पूर्व कृत दोषों से, पापों से विशुद्धि होती है, व्रतों में लगे हुए
दोषों की शद्धि होती है, उसे प्रायश्चित तप कहते हैं। आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये प्रायश्चित के दश भेद हैं। विभिन्न प्रकार के दोष अलग-अलग प्रायश्चित से दूर होते हैं। कोई दोष आलोचना मात्र से शुद्ध होता है, कोई दोष प्रतिक्रमण से शुद्ध होता है, कोई दोष आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों से शुद्ध होता है, कोई दोष विवेक से, कोई दोष कायोत्सर्ग से, कोई तप से, कोई
छेद से और कोई मूल से और कोई परिहार से तो कोई दोष श्रद्धान से शुद्ध होता है। 2. विनय तप-मोक्षमार्ग में विनय का प्रधान स्थान है। वह दो प्रकार का होता है-(अ)
निश्चय विनय, (2) व्यवहार विनय। अपने रत्नत्रयरूप गुण की विनय निश्चय विनय है तथा रत्नत्रयधारी साधुओं आदि की विनय व्यवहार विनय कहलाती है। श्रम प्राप्ति में गुरु विनय अत्यन्त प्रधान है। मिथ्यादृष्टियों व कुलिंगियों की विनय करना योग्य नहीं है। यह पाँच प्रकार की मानी गयी है। (ब) दर्शन विनय (स) ज्ञान विनय (ड) चारित्र विनय (फ) तप
विनय (ज) और उपचार विनय। 3. वैयावृत्य तप-साधु की अपनी शक्ति अनुसार सेवा-सुश्रषा करना, वृद्ध मुनि की
हर प्रकार से सेवा-टहल करना, वैयावृत्य परम कर्तव्य है, ऐसी सर्वज्ञ देव की आज्ञा है। यह वैयावृत्य तप निर्जरा का कारण है, ऐसा समझ कर इसके करने में सदा उद्यत रहना चाहिए। श्रावक-साधु किस-किस की वैयावृत्ति करे इसके लिए आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि
आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्।। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ-इन की वैयावृत्य करने के दस प्रकार हैं। (कष्टों को दूर करना) सेवा, पहल करना वैयावृत्य है।
2404