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________________ देता है। कहता है-"बताओ क्षमाधर्म कहाँ है?" मुनिराज फिर कहते हैं कि "क्षमा तो मेरे आत्मा में स्थित है भाई, तुम्हारे इस डंडे में नहीं है"। इसी क्रम से राजा क्रोधित होता हुआ तीसरी बार उनके दोनों हाथ काट देता है, चौथी बार दोनों पैर काट देता है। किन्तु मुनिराज शान्त रहते हैं और यही कहते हैं कि क्षमा तो मेरे आत्मा में स्थित है। अब राजा को होश आता है, सोचने लगता है कि मैंने यह क्या कर डाला। मैंने अपने भ्रमवश साधु को कष्ट दिया, ये तो साक्षात् क्षमा के धारक हैं, धीर, गम्भीर हैं और अपने कृत्यों की क्षमा माँगता हुआ उनके शरीर के सामने गिर पड़ता है। मुनिराज अब फिर कहते हैं कि राजन्! तुमने अपना कार्य किया और मैंने अपना। इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि "समता" द्वारा जीव किस प्रकार वाह्य प्रतिकूलताओं को जीतता है, अपने अन्दर स्थित आत्मगुणों को प्रकट करता है एवं इस वाह्य चारित्र द्वारा स्व और पर दोनों को असीम शान्ति की प्राप्ति होती है। दूसरी और जीव मोह, राग-द्वेष के वशीभूत होकर समता-शमता रहित अवस्था में क्या नहीं करता यह निम्न सवैये से स्पष्ट हो जाता है त्याग के वसन सब, भये हैं नग्न रूप। बगले के प्रकृति प्रत्यक्ष विस्तारी है। सम दम सदा सदाचार हुको लेश नाहिं। क्रोध-मान-माया-लोभ चेलति समाहारी है। अहो भरी नन्द हो, ऐसी मुनि चन्द से तो। भत महा भत एक पाखण्डी के धारी हैं। कहाँ भया साँप ने तो काँचली विसार दीनी। विष ने विसारा जो महा दुःखकारी है। जो त्यागी जन, मुनिराज सब वाह्य और अन्तरंग परिग्रह का त्याग करके दिगम्बर साधु हो जाते हैं, किन्तु समता-शमता नहीं धारण कर पाते, वे मात्र वेषधारी साधु ही हैं, जैसे बगुला एक टाँग पर खड़ा भक्त दिखता है किन्तु वह उसका दिखावा है, एक आँख से देखता रहता है और मछली आते ही पकड़ लेता है। ऐसे वेशधारी मुनिराज चारों कषाओं से युक्त होते हैं, अत: वे समता-शमता धारण नहीं कर सकते हैं। आगे पं. बनारसीदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार साँप केंचुली छोड़ता है, किन्तु अपना जहरीला विष नहीं छोड़ पाता, उसी प्रकार ये वेषधारी साधु अपनी वाह्य वस्त्र आदि केंचुली के समान तो छोड़ देते हैं, किन्तु अपने अन्दर की चारों कषाय रूप जहर नहीं छोड़ पाते अतः ऐसे साधु त्रिरत्न से शून्य हैं। 239
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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