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चारित्र वास्तव में धर्म है और जो धर्म है वह साम्य है, ऐसा जिनेन्द्रों द्वारा कहा गया है। साम्य ही वास्तव में और राग-द्वेष रहित आत्मा का परिणाम है। दूसरे शब्दों में समता ( चारित्र) प्रकट होना धर्म है, या साम्य भाव है, आत्मा का मोह और क्षोभ ( राग-द्वेष ) से रहित जो भाव है, वही निश्चय करके समता भाव है।
आचार्य कुन्दकुन्द समता भाव का लक्षण बताते हुए आगे लिखते हैं कि
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो । समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥
- प्रवचनसार 3.41
जिसके शत्रु और बन्धु वर्ग समान हैं, सुख-दुःख समान हैं, प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, वह श्रमण है। दूसरे शब्दों में जहाँ शत्रु-मित्र में, सुख-दुःख में, प्रशंसा - निन्दा में कंकड़ और सोने में, जीवन-मरण में, मोह के अभाव के कारण सर्वत्र जिसके रागद्वेष का द्वैत प्रकट नहीं होता, जो सतत विशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाव आत्मा का अनुभव करता है और उपर्युक्त सभी को बिना अन्तर के ज्ञेयरूप से जानकर ज्ञानात्मक आत्मा में जिसकी परिणति अचलित हुई है, उस पुरुष को वास्तव में जो सर्वतः साम्य है, उसे साम्य संयत का लक्षण समझना चाहिए, उस संयत के आगमज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान संयत्त्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान की युगपत्ता है। मान-अपमान में मुनिराज किस प्रकार समता धारण किए रहते हैं यह निम्न दृष्टान्त से भी स्पष्ट हो जाता है
यथानुरूप कार्य
एक बार एक युवा मुनि एक राजा के उद्यान में विराजमान थे। उसी बाग में एक दिन राजा किसी कारणवश सो जाते हैं। इनकी रानियाँ भी इसी उद्यान में इधर-उधर घूम रहीं थीं। साधु को देख भक्तिवश वे मुनिराज के पास आती है और उपदेश सुनने की इच्छा से वहीं पास में बैठ जाती है। मुनिराज उत्तम क्षमा पर उपदेश देते हैं। इसी दौरान राजा की आँख खुल जाती है और अपनी सब रानियों को युवा साधु के पास बैठा देख शंकालु हो जाता है। अतः क्रोध से ग्रसित हो मुनिराज के पास आकर कहता है कि "तुम इन मेरी रानियों से क्या व्यर्थ की बातें कर रहे हो ? शान्त प्रकृति के साधु महाराज कहते हैं कि- " मैं इन्हें इनकी इच्छानुसार क्षमा धर्म पर उपदेश दे रहा हूँ"। राजा के मन में सन्देह भरा हुआ था, इसलिए राजा ने क्रोध में आकर एक चांटा साधु महाराज के गाल पर जड़ दिया और कहता है कि- " मैं देखना चाहता हूँ कि तुम्हारा क्षमाधर्म कहाँ है? साधु शान्तिपूर्वक उत्तर देते हैं कि-" क्षमाधर्म मेरी आत्मा में स्थित है "। राजा को फिर क्रोध आता है और एक पास में पड़ा डंडा उठाकर उन साधु पर मार
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