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तप दो प्रकार का है-(अ) वाह्यतप, और (ब) आभ्यन्तर तपा इन दोनों के छह-छह भेद हैं। वाह्य तप के छः भेद-आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि
अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्तिपरिसंखा। कायस्स वि परितावो विवित्तसयणासणं छद॥
- मूला. 149 अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्तशयनासन-ये छः प्रकार के वाह्य तप हैं। इसका वर्णन निम्न है1. अनशन तप-खाद्य, स्वाद्य, लेह, और पेय-इन चार प्रकार के आहार का त्याग करना
अनशन तप है। 2. अवमौदर्य तप-भूख से कम खाना अवमौदर्य तप है। साधु को आहार में अति आसक्ति
नहीं होती; वे संयम के हेतु अल्प आहार लेकर अपनी आत्मसाधना में रत रहते हैं। 3. रसपरित्याग तप-अपनी इच्छानुसार स्निग्ध (घृत, तेल मिष्ठ, खट्टा, कडुआ इत्यादि रस
का त्याग करना रसपरित्याग तप है। दूध, दही, घी, तेल, मीठा, नमक ये छः रस भी माने
गये हैं। 4. वृत्तिपरिसंख्यान तप-घर, दाता, बर्तन तथा भोजन आदि की अटपटी आखड़ी लेना, फिर
आहार चर्या को निकलना, वृत्तिपरिसंख्यान तप है। 5. कायक्लेश तप-गर्मी में आतापन, शीतकाल में खुले मैदान में ठहरना, वर्षा ऋतु में वृक्ष
के नीचे ठहरना आदि क्रियाओं से कर्म का क्षय करने के लिए बुद्धिपूर्वक शरीर का शोषण करना, कायक्लेश तप है। विविक्तशयनासन तप-स्त्री.पश.नंपसक आदि से शन्य स्थान में सोना.बैठना. विविक्त शयनासन तप है। ये मुनिराज वन में, गुफा में, पर्वत के शिखर आदि एकान्त स्थान में वास करते हुए आत्मसाधना करते हैं। एकान्त स्थान में ध्यान और अध्ययन की निर्विघ्न साधना होती है। ये सभी तप समता धारण किए बिना संभव नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि समता के अन्तर्गत आने वाले समस्त चारित्र व्यवहार चारित्र हैं, निश्चय चारित्र आत्मा का भाव ही है।
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिदिट्ठो। मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥
-प्रवचनसार 7
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