________________
2. उष्ण परिषहजय-गर्मी की भयंकर वेदना को शान्त भाव से सहन करना ही उष्ण परिषहजय माना गया है।
भख प्यास पीडै उर अंतर प्रजलै आँत देह सब दागे। अग्नि सरूप धूप ग्रीषम की ताती वायु झालसी लागै॥ तपैं पहाड़ ताप मन उपज्ञति कोपै पित्त दाह ज्वर जागै।
इत्यादिक गर्मी का बाधा सहैं साधु धीरज नहिं त्यागें। 3. दंशमशक परिषयजय-दंस मच्छर आदि जानवरों द्वारा सताये जाने पर भी विचलित
नहीं होना तथा उनकी बाधाओं को समता भाव से सह लेना ही दंशमशक परिषहजय कहलाता है।
डन्स मश्क माखी तनु का पीडै बन पक्षी बहुतेरे। डसैं ब्याल विषहारे बिच्छू ल- खजूरे आन घनेरे।। सिंह स्याल
स्याल सुंडाल सतावै रीछ रोझ दुःख देहिं घनेरे।
ऐसे कष्ट सह समभावन ते मुनिराज हरो अघ मेरे॥ 4. शय्या या शयन परिषहजय-स्वाध्याय, ध्यान एवं मार्गश्रम से जो खेद-खिन्न हो चुके हैं,
फिर भी जो बहुत कम सोते हैं, और वह भी एक करवट तथा कंकरीले, कठोर, गर्म या ठंडे स्थान का विचार नहीं करते, ऐसी बाधाएं समता भाव से सह जाते हैं, उन्हें शय्या परिषहजय कहते हैं।
जो प्रधान सोने के महल सुन्दर सेज सोय सुख जोवौं। ते अब अचल अंग एकासन कोमल कठिन भूमि पर सोवै॥ पाहनखंड कठोर कांकरी गड़त कोर कायर नहिं होवें।
ऐसी शयन परीषह जीते ते मुनि कर्मकालिमा धोवै॥ तप-अनात्म पदार्थों अर्थात् पौद्गलिक विषयों में जो इच्छाएँ दौड़ रहीं हैं, उन्हें रोककर स्वाध्याय, ध्यानादि आत्महित के कार्यों में लगाना ही तप है। यह तप रूप अग्नि अनादि काल से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म रूप ईंधन राशि को क्षण भर में भस्मसात करने वाली है। अत: क्षण भर भी अर्थात् काल का सूक्ष्म भाग भी तप से खाली नहीं जाने देना चाहिए। क्योंकि तपश्चरण ही तुम्हारे आत्मीय रोग की अमोघ औषधि है। तप के भेद-आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि
दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्मंतर मुणेयव्यो। एक्कक्को वि य छद्धा जधाकमं तं परूवेमो॥
-मूलाधार, 147 1236