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________________ हैं और यज्ञ का बहाना बना कर आग लगा देते हैं। पूरा संघ जलने लगता है सभी मुनि प्रतिज्ञा करते हैं कि जब तक उपसर्ग दूर नहीं हो जाता, तब तक अन्न जल का ग्रहण नहीं करेंगे और वे समता धारण कर सल्लेखना धारण कर लेते हैं। ___ दूसरी ओर मिथिलापुरी में आचार्य श्रुतसागर भी मुनिवरों पर आये हुए उपसर्ग को श्रवण नक्षत्र कपित होने से जान जाते हैं। ऋद्धिधारक मुनिराज विष्णुकुमार को आदेश देते हैं कि जाओ उपसर्ग दूर करो। विष्णुकुमार मुनि आते हैं, और 700 मुनियों का उपसर्ग दूर करते हैं। चारों ओर हस्तिनापुर में जय-जयकार की मंगलध्वनि होती है। राजा भी अपने कृत्य की क्षमा मांगता है और जैनधर्म अंगीकार कर लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समता के द्वारा वाह्य समस्त बाधाओं को जीता जा सकता है। तथा समता धारण करने वाले जीवों पर वाह्य प्रतिकुलताओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। क्योंकि वे तो सुख-दुःख, बैरी-बन्धु वर्ग में, काँच-कनक में समता रखते। वन-उपवन, प्रासाद-कुटी में, नहीं खेद नहीं ममता रखते॥ बाईस प्रकार के परिषहों को समता भाव से जीतना भी आवश्यक बताया गया है। आचार्य उमास्वामी कहते हैं किमार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः। -तत्वार्थसूत्र, अ. 1/8 मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा करने के लिए जो सहन करने योग्य हो, वे परिषह हैं। दूसरे शब्दों में गर्मी, भूख, प्यास, मच्छर आदि की प्राकृतिक बाधाओं को शान्त भाव से सह लेना, समता धारण कर लेना, परिषह कहलाता है। क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन-ये 22 परिषह माने जाते हैं। इन सभी परिषहों पर मुनिराज समता भाव से विजय प्राप्त करते हैं। कुछ मुख्य परिषहों का वर्णन, जो मुनिराज सहते हैं, निम्न 1. शीत परिषहजय-शीत ऋतु में सर्दी के कष्ट को सहना ही शीत परिषहजय कहलाता है। शीतकाल सबही न कम्पन खड़े तहाँ वन वृक्ष डहे हैं। झंझा वायु चलै वर्षाऋतु वर्षत बादल झूम रहे हैं। तहाँ धीर तटनी तट चौपट ताल पाल पर कर्म दहे हैं। सहैं सँभाल शीत की बाधा ते मुनि तारण तरण कहे हैं। 235
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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