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________________ दिगम्बर मुनिराज बाईस परीषहों को जीतने वाले होते हैं, अटूट समता के धारक होते हैं और शान्ति के पुजारी होते हैं। समताधारियों के अनेक दृष्टान्त शास्त्रों में हमें मिलते हैं। जैसे-गजकुमार मुनि के सिरपर अंगीठी जलाई, पाण्डवों के शरीर लोहे के तपा-तपा कर दुर्योधन के भांजे ने गहने पहनाये, सुखमाल मुनि को स्यालिनी और उसके बच्चों ने खा डाला तथा पाँच सौ मुनियों को दण्डक राजा ने घानी में पिरवा डाला। इन सभी ने ऐसे अवसरों पर अटूट समता को धारण किया और उपसर्ग विजयी बने तथा कल्याण को प्राप्त हुए। यहाँ पर एक दृष्टान्त 500 मुनियों को घानी में पेरने वाला दिया जा रहा। दुर्भावना की पराकाष्ठा एक दंडक नाम की नगरी थी, जिसका राजा दंडक था। यहाँ के रानी और राजा स्वयं वीतराग धर्म के बहुत विरोधी थे। प्रतिदिन वीतराग साधु की निन्दा किया करते थे। एक बार यह दंडक राजा जंगल में घूमने के लिए चल दिये। वहीं जंगल में एक वीतरागी साधु ध्यान में मग्न बैठे थे। अतः इन्हें देखते ही राजा की दुर्भावना प्रबल हो उठी। राजा साधु के गले में साँप डालता है और तमाशा देखने को बैठ जाता है। एक दूसरा व्यक्ति जो वीतरागी साधु का भक्त था, आता है और साँप को गले से अलग कर देता है। कुछ समय बाद मुनि महाराज का ध्यान टूटता है, | तो सामने बैठे दोनों को आशीर्वाद देते हैं। दंडक राजा विचार करता है कि ये साधु तो महान् होते हैं इन्होंने पूजक और निन्दक दोनों को समान आशीर्वाद दिया और वह प्रभावित हो निर्णय लेता है कि आज से मैं दिगम्बर वीतरागी सन्तों की पूजा करूंगा, विरोध नहीं करूंगा। इस प्रकार श्रद्धान लेकर वह अपने महल आकर रानी से कहता है कि आज से तुम भी वीतरागी साधुओं की पूजा किया करो। रानी तो सरागी साधुओं को मानती थी, राजा को वीतरागी साधुओं का भक्त बना देखकर विचारने लगी कि क्या उपाय किया जाये जिससे राजा का इनके प्रति श्रद्धान नष्ट हो जाये। अतः वह एक सरागी साधु को बुलाकर लाने का निर्णय लेती है। दोनों योजना बना लेते हैं कि राजा के सामने सरागी साधु दिगम्बर मुनि का वेश धारण कर रानी से विकार युक्त बातचीत करेगा। वे ऐसा ही जब राजा के सामने करते हैं तो राजा दंडक बहुत दुःखित होता हुआ उसे महल से बाहर निकलवा देता है और पुनः वीतराग साधुओं का विरोधी हो जाता है। अपनी रानी की मायाचारी से पूर्णतः अनभिज्ञ रहता है। एक दिन इसी दंडक नगरी में 500 मुनियों का संघ विहार करता हुआ आता है। राजा विचार करने लगता कि एक जैन साधु मेरी रानी को भ्रष्ट करने पर तुला था, ये 500 साधु तो सारा नगर बिगाड़ देंगे। अत: बिना सोचे समझे आदेश देता है कि सब साधुओं को पानी में पेर दिया जावे। आदेश पाते ही सभी 500 साधुओं को घानी में पेर दिया गया। सभी दिगम्बर वीतरागी सन्त अट समता को धारण कर अपनी आत्म साधना में लीन हो जाते हैं और स्वर्ग आदि चले जाते हैं। 260
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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