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________________ जिस तीर्थङ्करदेव ने जीव अजीव द्रव्य कहे हैं, इन्द्रों के समूह से नमस्कार करन योग्य उस तीर्थङ्कर प्रभु को मैं (नेमिचन्द्र) सिर झुकाकर हमेशा नमस्कार करता हूँ। नमः श्री वर्धमानाय, निई तकलिलात्मने। सालोकानां त्रिलोकानां, यद्विद्या दर्पणायते॥ ___ (रत्नकरण्डसावकाचार) जिन्होंने अपनी आत्मा से कर्मों रूपी काजल को नष्ट कर दिया है और जिनके केवलज्ञान में अलोकाकाश सहित तीनों लोक दर्पण के समान झलकते हों उन श्रीवर्धमान स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ। नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते। चित्स्वभावभावाय सर्व भावान्तरच्छिदे।। (अमृतकलश) चैतन्य ही है स्वभाव जिसका ऐसे शुद्धात्म स्वरूप पदार्थ को जो अपनी स्वानुभूति से प्रकाशमान होता है तथा जो सम्पूर्ण पदार्थों में भिन्न है उसे नमस्कार करता हूँ। मङ्गलमय मङ्गलकरण, वीतराग-विज्ञान। नमो ताहि जातै भये, अरहंतादि महान्॥ चिदानन्दैकरूपाय, जिनाय परमात्मने। परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः।। (दर्शनपाठ) चिदानन्दमय एकरूप, वंदन जिनेन्द्र परमात्माको। हो प्रकाश परमात्मनित्य, मम नमस्कार सिद्धात्माको। विधि की विशेषता से, द्रव्य की विशेषता होने से, दाता की विशेषता होने से और पात्र की विशेषता होने से दान में भी विशेषता हो जाती है। प्रतिग्रह उच्चस्थान आदि नवधा भक्ति की क्रियायें हैं, उन्हें आदरपूर्वक करना विधि की विशेषता कहलाती है। भिक्षा में भी जो अन्न दिया जाये वह यदि आहार लेने वाले साधु के तपश्चरण, स्वाध्याय आदि को बढ़ाने वाला हो तो वही दव्य की विशेषता कहलाती है। -चामुण्डराय
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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