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________________ उपदेश दे हितकर अनेकों, भव्य निजसम कर लिये। रविज्ञान-किरण प्रकाश डालो, वीरप्रभुमेरेहिये। घाइचउक्कहँ किउ विलउ यंतचठक्कपदिठु। तहिं जिणइंदहें पय णविवि अक्खमि कव्वु सुइठ्ठ।। (योगसार) जिसने चार घातिया कर्मों का क्षय किया है तथा अनन्तचतुष्टय का लाभ किया है उन जिनेन्द्र के पदों को नमस्कार करके सुन्दर प्रिय काव्य को कहता हूँ। जे जाया झाणग्गियएं कम्मकलंक डहेवि। णिच्च णिरंजण णाणमय ते परमप्प णवेवि॥ (श्री योगीन्द्रचन्द्राचार्य परमात्मप्रकाश) जो ध्यान की आग से कर्म-कलंक को जलाकर नित्य, निरंजन तथा ज्ञानमय हो गये हैं, उन सिद्ध परमात्माओं को मैं नमन करता है। येनात्मा बुध्यतात्मैव परत्वेनैव चापरम्। अक्षयानन्तबोधायतस्मै सिद्धात्मने नमः। (श्री पूज्यपाद स्वामी समाधिशतक) जिसने अपनी आत्मा को आत्मारूप व पर पदार्थों को पररूप जाना है तथा इस भेद विज्ञान से अक्षय व अनन्त केवलज्ञान का लाभ किया है उन सिद्ध परमात्मा को नमस्कार हो। यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने। (पूज्यपादस्वामी, इष्टोपदेश) सर्व कर्मों का क्षय करके जिन्होंने स्वयं अपने स्वभाव का प्रकाश किया है उन सम्यग्ज्ञान स्वरूप सिद्ध परमात्मा को नमन हो। हे त्रिभुवन के संकटहर्ता, अगर तुम्हारे में नत मात। सकलधरा के आभूषण हो, अति निर्मल तुम्हें नमन हो नाथ। परमेश्वर हो तीन लोक के मम प्रणाम करलो स्वीकार। नमस्कार तुमको जिनेन्द्र हे भव समुद्र के शोषणहार॥ जीवमजीवं दव्वं, जिणवरवसहेण जेण णिहिट्ठ। देविंदविंदवंदं वंदे तं सव्वदा सिरसा।। (द्रव्यसंग्रह) ब
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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