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मन-वचन और काय की क्रियाओं को रोकना ही सम्यक् प्रकार योग का निग्रह है। योग का निग्रह होने से आर्त-रौद्र ध्यानात्मक संक्लेश परिणामों की उत्पत्ति नहीं होती है और फिर अशुभ कर्मों का आस्रव भी नहीं होता। इसलिए गप्ति संवर की प्राप्ति का कारण होती है। बाह्य चारित्र की उत्पत्ति का कारण-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं कि
बादरसंजलणुदये सुहमुदये समखये च मोहस्स। संयमभावो णियमा होदित्ति जिणेहिं णिद्दिठं।
- गोम्मटसार-जीवकाण्ड 466 संज्वलन कषाय का उदय, सूक्ष्मलोभ का उदय, सम्यग्चारित्र मोहनीय का उपशम तथा क्षय होने पर नियम से चारित्र भाव होता है। दूसरे शब्दों में प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुण स्थानों में-संज्वलन कषाय चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभाव रूप क्षय अर्थात् कर्मों का बिना फल दिये झड़ जाना, देशघाती स्पर्द्धकों का उदय और इन्हीं का सदवस्था रूप उपशम होने पर सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि संयम होते हैं। परिहार विशुद्धि संयम छठे और सातवें गुणस्थान में होता है। सामायिक और छेदोपस्थापना संयम छठे से अनिवृत्तिकरण नवमें गुणस्थान पर्यंत होता है, क्योंकि बादर संज्वलन चतुष्क नवमें गुणस्थान तक उदय रहता है। सामायिक चारित्र-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कहते हैं कि
संगहिय सयलसंजममें यजममणुत्तरं दुखगम्म। जीवो समुव्वहतो सामाइयसंजमो होदि।
(गोम्मटसार-जीवकाण्ड 470) व्रत धारण, समिति पालन आदि पाँच प्रकार के संयम को एक साथ "मैं सर्व सावद्य (हिंसादि पाप) कर्मों का त्यागी हूँ" इस प्रकार संग्रह नय से सबका संग्रह करके अभेद रूप सावध कर्म से निवृत्ति स्वरूप एक यम का धारण करना सामायिक संयम या चारित्र है। इसकी तुलना दूसरे चारित्र नहीं कर सकते, क्योंकि यह सम्पूर्ण तथा दुर्गम चारित्र है। इसका धारण करना अत्यन्त कठिन है। ऐसे चारित्र को धारण करने वाला जीव सामायिक संयमी होता है। आशय यह है कि समस्त सावध क्रियाओं का एक साथ त्याग कर व्रतों का धारण, समिति का पालन, मन-वचन-काय की क्रियाओं से निवृत्ति आदि पाँच प्रकार के संयम का धारण एक साथ करना सामायिक संयम है। यह अनुपम और दुष्प्राप्य है। यह अटूट समता धारण किये बिना संभव नहीं होता है।
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