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सम्यग्चारित्र पुरुषार्थ के बिना नहीं बनता है। पुरुषार्थ से ही मोक्षमार्ग की साधना होती है, और सम्याचारित्र के बिना मोक्षमार्ग बनता नही। आचार्यों ने पुरुषार्थ दो प्रकार का माना है1. द्रव्यात्मक पुरुषार्थ-तप, व्रत, संयम, समिति आदि इसके अन्तर्गत आते हैं, जिनका
सम्बन्ध मन वचन-काय की परिस्पन्दन रूप क्रिया के साथ होता है। समता रूपी चारित्र इसी के अन्तर्गत समाहित है। भावात्मक पुरुषार्थ-इसके अन्तर्गत "शमता" रूपी चारित्र आता है। क्योंकि इसका सम्बन्ध योग के साथ नहीं, उपयोग के साथ होता है। ध्यान तथा समाधि के द्वारा इसका अभ्यास किया जाता है। द्रव्यात्मक तथा भावात्मक ये दोनों ही प्रकार के पुरुषार्थ साधक दशा में सदा साथ-साथ रहते हैं। समता-शमता के अन्तर्गत आने वाले चारित्र का विस्तृत वर्णन दृष्टव्य है।
समता के अन्तर्गत आने वाला चारित्र मोक्षमार्ग को पूर्ण बनाने के लिए मोक्षार्थी का वाह्य क्रिया से सम्बन्धित जितना भी चारित्र है, वह इसके अन्तर्गत आता है। व्रत, समिति से सम्बन्धित 13 प्रकार का चारित्र होता है- पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ तथा तीन गुप्तियाँ। पाँच महाव्रत तथा पाँच समिति रूप चारित्र पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। यहाँ तीन गुप्तियाँ ही जानना पर्याप्त है।
तीन गुप्तियाँ-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति ओर कायगुप्ति। मनोगुप्ति-राग-द्वेष से मन की निवृत्ति हो जाना ही मनोगुप्ति है।
वचनगुप्ति-सूत्र के विरुद्ध तथा अप्रिय वचनों से निवृत्त होना वचनगुप्ति है, अथवा असत्य वचनों की निवृत्ति भी वचनगुप्ति कहलाती है। मौन धारण करना, ध्यान, अध्ययन या चिन्तन में लगे रहना भी वचन गुप्ति है।
कायगप्ति-शरीर की प्रवृत्ति को रोकना, कायोत्सर्ग करना, शरीर से ममत्व छोड़ना, आसन लगाकर ध्यान करना कायगुप्ति है। जैसे खेत में अनाज की रक्षा के लिए खेत के चारों ओर काँटों की बाढ़ खड़ी कर देते हैं, ताकि उसमें कोई पशु आदि घुस न सके। इसी प्रकार आत्मा इन पापरूपी प्रवृत्तियों में न फंस जाए एतदर्थ मन-वचन-काय की गुप्ति रूपी बाढ़ की व्यवस्था की जाती है। ये गुप्तियाँ दस प्रकार के चारित्र (पाँच महाव्रत तथा पाँच समितियाँ) की रक्षा करती
इस प्रकार विषय सुख की अभिलाषा के लिए जो मन-वचन-काय की प्रवत्ति होती है. उसका निरोध करना गुप्ति है। सत्कार, ख्याति, पूजा, धनादि के लाभ की आकांक्षा रहित होकर
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