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इस प्रकार सम्यग्चारित्र के लिए यह परम आवश्यक है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की एकता हो। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भिन्न-भिन्न हैं? इसका समाधान करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि
दसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा पिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।
-समयसार 16 साधु पुरुष को दर्शन-ज्ञान और चारित्र सदा सेवन करना चाहिए, और उन तीनों को निश्चय नय से एक आत्मा ही जानना चाहिए। दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों आत्मा की ही पर्याय हैं, कोई भिन्न-भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं, इसलिए साधु पुरुषों को एक आत्मा का ही सेवन करना यह तो निश्चय है और ऐसा कथन करना तथा दूसरों को ऐसा उपदेश देना व्यवहार है। इस प्रकार परमार्थ से देखा जाये तो ये तीनों एक आत्मा ही हैं, क्योंकि वे अन्य वस्तुएँ नहीं हैं, वरन् आत्मा की ही पर्यायें हैं। इस बात को नय विवक्षा से दृष्टान्त के द्वारा समझाते हुए आचार्य आगे कहते हैं कि
जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदिपुणो अत्थत्थीओपयत्तेण।।
-समयसार 17 जैसे कोई धन का अर्थी पुरुष बहुत उद्यम से पहले राजा को जानकर उसी पर श्रद्धा करता है कि "यही अवश्य राजा ही है," इसकी सेवा करने से अवश्य धन की प्राप्ति होगी। फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुसरण करता है, अर्थात् सुन्दर रीति से सेवा करता है, उसकी आज्ञा में रहता है। ठीक इसी प्रकार मोक्ष के अभिलाषी को पहले जीव रूपी राजा को (अपनी आत्मा को) जानना चाहिए, और फिर उसका श्रद्धान करना चाहिए, कि "यही आत्मा है, इसका आचरण करने से कर्मों से छूटा जा सकता है", तत्पश्चात् इसी आत्मा का अनुसरण करना चाहिए अर्थात् अनुभव के द्वारा तन्मय हो जाना चाहिए। क्योंकि साध्य जो निष्कर्म अवस्थारूप अभेद शुद्ध स्वरुप है, उसकी सिद्धि की इसी प्रकार से प्राप्ति होती है, अन्य प्रकार से नहीं। स्पष्ट है कि व्यवहारीजन पर्याय में अर्थात् भेद में समझते हैं, इसलिए यहाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र को भेद रूप समझाया गया है।
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्म। जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव॥
-समयसार 19
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