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कुन्दकुन्द आचार्य कहते हैं की जब तक इस आत्मा कि ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म, और शरीर आदि नोकर्म में ऐसी बुद्धि बनी रहती है कि, "ये मैं हूँ", तथा मुझ में "ये कर्म, नोकर्म" आदि हैं, तब तक यह आत्मा अज्ञानी बना हुआ है।
दूसरे शब्दों में जैसे स्पर्शादि में पुद्गल का और पुद्गल में स्पर्शादि का अनुभव होता है अर्थात् दोनों एकरूप अनुभव होते हैं, उसी प्रकार जब तक आत्मा को, कर्म और नोकर्म में आत्मा का और आत्मा में कर्म और नोकर्म की भ्रान्ति रहती है, तब तक ही यह आत्मा अज्ञानी दशा में रहती है और जब यह जानता है कि आत्मा तो ज्ञाता है और कर्म नोकर्म पुद्गल के ही है, तब वह ज्ञानी हो जाता है। इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि, जैसे-दर्पण में अग्नि की ज्वाला दिखाई देती है। वहां यह मालूम होता है कि "ज्वाला तो अग्नि में ही है, वह दर्पण में प्रविष्ट नहीं है, और जो दर्पण में दिखाई दे रही है वह दर्पण की स्वच्छता ही है", इसी प्रकार " कर्म नोकर्म अपनी आत्मा में प्रविष्ट नहीं है, आत्मा की ज्ञान स्वच्छता ऐसी ही है कि जिसमें ज्ञेय का प्रतिबिम्ब दिखाई दे, इसी प्रकार कर्म, नोकर्म ज्ञेय हैं, इसलिए वे प्रतिभासित होते हैं" - ऐसा भेदज्ञान रूप अनुभव आत्मा को या तो स्वयमेव हो, या उपदेश से हो, तभी वह ज्ञानी कहलाता है और भी जैसे सोया हुआ मनुष्य या तो स्वयं ही जाग जाये या कोई उसे जगा दे, तो उसे जगा हुआ समझना चाहिए। इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द अन्य प्रकार से इस प्रकार भी कहते हैं
सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणतो दु असुद्ध असुद्ध मे वप्पयं लहइ ।।
- समयसार 186
जो शुद्ध आत्मा को जानता है, अनुभव करता है, वह शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है और जो अशुद्ध आत्मा को जानता है, अनुभव करता है, वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है।
दूसरे शब्दों में जो जीव अखण्ड धारावाही ज्ञान से आत्मा को निरन्तर शुद्ध अनुभव किया करता है, उसके राग-द्वेष- मोह रूपी भावास्रव रुक जाते हैं और वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त हो जाता है; इसके विपरीत जो जीव आत्मा को अशुद्ध अनुभव करता है, उसके राग-द्वेष-मोह रूपी आस्रव नहीं रुक पाते और वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि शुद्ध आत्मा के अनुभव से ही संवर होता है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की एकता हुए बिना सम्यग्चारित्र का प्रकट होना असंभव है। सम्यग्चारित्र वही है जो सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित है। इन तीनों के बिना मोक्षमार्ग बन ही नहीं सकता। ऐसा कथन करना कि ये तीन भेद रूप आत्मा हैं,
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