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________________ पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणांसइ सो गओ वि संसारे। सच्चेदण पच्चक्खं णासदि तं सो अदिस्समाणो वि॥ - अष्टपाहुड-सूत्रपाड 43 धागे सहित सुई नष्ट नहीं होती वैसे ही जो पुरुष संसार में भ्रमण कर रहा है, उसे अपना रूप स्वयं दृष्टिगोचर नहीं होता, तो भी सूत्रों का जानकार, अर्थात् ज्ञान का जानकार अपनी आत्मा सत्तारूप चैतन्य को स्व-संवेदन से प्रत्यक्ष अनुभव करता है, इसलिए संसार में रहता हुआ भी संसार में भ्रमण नहीं करता और एक दिन अपने अनादि संसार भ्रमण को मिटा देता है, उसका नाश कर देता है। ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए पं. दौलतराम जी इस प्रकार कहते हैं कि धन-समाज-गज-बाज, राज तो काज न आवे। धन-दौलत, समाज, हाथी, घोड़ा और राज्य आदि कोई भी पदार्थ आत्मा की भलाई में कार्यकारी नहीं है, किन्तु आत्मज्ञान प्राप्त होने पर वह स्थिर हो जाता है, अर्थात् केवलज्ञान रूप होकर एकरूप रहता है। यह आत्मज्ञान श्रुत अभ्यास द्वारा ही प्राप्त होता है, जो कि इस संसार भ्रमण के नाश का कारण बनता है। ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए निम्न सवैये में पं. बनारसीदास जी कहते हैं कि ज्ञान के बिना सभी वेषधारी साध ढो हैं, विषयों में फंसे हैं, भिखारी के समान हैं भोषधरि लोकनिकौं बेचै सो धरम ढंग, गुरु से कहावै गुरुवाई जाहि चहिये। मंत्र-तंत्र साधक कहावै गुनी जादूगर, पंडित कहावै पंडिताई जामै लहिये।। कवित्त की कला मैं प्रवीन सो कहावै कवि, बात कहि जानै सो पवारगीर कहिये। एतौ सब विषैके भिखारी मायाधारी जीव, इन्हको विलो किकै दयालरुप रहिये। जो वेष बनाकर लोगों को ठगता है, वह धर्म ठग कहलाता है। जिसमें लौकिक बड़प्पन होता है, वह बड़ा कहलाता है, जिसमें मंत्र-तंत्र साधने का गुण है, वह जादूगर कहलाता है; जो कविताई में होशियार है, वह कवि कहलाता है; जो बात-चीत में चतुर है, वह व्याख्याता कहलाता है। ये सब कपटी जीव विषय के भिखारी हैं, विषय की पूर्ति के लिए याचना करते फिरते हैं, इनमें स्वार्थ त्याग का अंश भी नहीं है। इन्हें देखकर दया आना चाहिए। इस प्रकार इन जीवों के अनादर का कारण अज्ञान ही है। ज्ञानी तो हमेशा आदर-प्रंशसा का माप बनता है। 227
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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