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________________ बदली चादर कोई व्यक्ति धोबी के घर से भ्रमवश दूसरे की चादर लाकर उसे अपना समझकर ओढ़कर सो जाता है। इस प्रकार स्वयं ही अज्ञानी हो रहा है, क्योंकि यह चादर दूसरे की है, उसे यह पता ही नहीं है। भ्रम बना हुआ है। अब जिसकी वह चादर है, वह व्यक्ति आता है, और चादर के पल्ले को पकड़ कर खींचता हुआ यह कहता है कि "उठ, सावधान हो, यह मेरी चादर तू ले आया है, यह मेरी है, इसलिए मुझे दे दे", तब उसके कहे अनुसार सर्व चिह्नों से भलीभांति परीक्षा करे कि, " वास्तव में यह मेरी चादर नहीं है, दूसरे की ही ऐसा जानकर ज्ञानी होता हुआ, उस चादर को शीघ्र ही त्याग देता है। इस प्रकार भेदज्ञान से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हुआ करती है। सम्यग्ज्ञान की महिमा ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए पं. दौलतराम जी कहते हैं कि ज्ञान समान न आन जगत में, सुख को कारण । इहि परमामृत जन्म- जरामृत - रोग निवारन ॥ - छहढाला, 43 पाँचों सम्यग्ज्ञानों में से आत्मा के कल्याण का सम्बन्ध सम्यग्श्रुतज्ञान से है, क्योंकि साधक को श्रुतज्ञान की आराधना से केवलज्ञान प्राप्त होता है, अतः दौलतराम जी उस सम्यग्श्रुतज्ञान को लक्ष्य करके कहते हैं कि इस ज्ञान के समान कोई दूसरा सुखदायी नहीं है। यह सम्यग्ज्ञान ही जन्म, जरा, और मरण रूप रोग का नाश करता है। अतः सम्यग्ज्ञान की महिमा अतुलनीय है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि शास्त्र अभ्यास अनिवार्य सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि । सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि॥३ - अष्टपाहुड-सूत्र, 3 जो पुरुष सूत्र अर्थात् ज्ञान को जानने वाला है, प्रवीण है, कुशल है, वह अपने संसार भ्रमण का नाश कर देता है। जैसे लोहे की सुई डोरे के बिना हो तो खो जाती है, नष्ट हो जाती है, डोरे सहित नहीं खोती। यहाँ इस बात को दृष्टान्त रूप से समझाया गया है कि जैसे सुई धागे सहित हो तो दृष्टिगोचर होकर मिल जाती है, कभी भी नहीं खोती है, डोरे के बिना हो तो दीखती नहीं, इसी प्रकार सूत्र के ज्ञाता अर्थात् ज्ञान के ज्ञाता मनुष्य अपना संसार भ्रमण खत्म कर लेते हैं, नाश कर लेते हैं। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि 226
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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