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________________ ज्ञान की आराधना कब करनी चाहिए? पं. दौलतराम जी ने छहढाला की चतुर्थ ढाल के प्रारम्भ में लिखा है कि सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान। स्वपर अर्थ बहुधर्म जुत जो प्रगटावत भान ।। सम्यग्दर्शन हो जाने के उपरान्त, ज्ञान को प्राप्त करना चाहिए। आगम के अभ्यास द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहिए, क्योंकि ज्ञान ही स्व और पर पदार्थ को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के समान है। दूसरे शब्दों में सभी संसारी जीवों को कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य होता है, किन्तु वह ज्ञान मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं होता। मोक्षमार्ग में कार्यकारी ज्ञान तो सम्यग्दर्शन के साथ वाला ज्ञान ही होता है। जिस समय जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, उस समय उसका पूर्व का जितना भी ज्ञान होता है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है। अब उसे आगम के अभ्यास के द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहिए। ज्ञान के भेद - सम्यक् और मिथ्या के रूप में ज्ञान के दो भेद होते हैं। मति, श्रुत अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान ये ज्ञान के भेद हैं। कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन ज्ञान मिथ्या हैं। इनके भी भेद प्रभेद होते हैं, जिसको विस्तार से सम्यग्ज्ञान के प्रकरण में देखा जा सकता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से भी ज्ञानों के दो भेद हैं, जिनके और भी उत्तर भेद होते हैं। सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति एवं इसके प्रकट होने के संदर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि - जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणंति जाणिदं च यदि । तह सव्वे परभावे णऊण विमुञ्चदे णाणी ॥ - समयसार 35 जैसे लोक में कोई पुरुष पर वस्तु को ऐसा जाने कि "यह पर वस्तु है", और ऐसा जानकर पर वस्तु का त्याग कर देता है, ठीक उसी प्रकार जब कोई पुरुष समस्त पर द्रव्यों के भावों को कि "ये परभाव हैं" ऐसा जानकर उनको छोड़ देता है, तब वह ज्ञानी होता हुआ ऐसा करता है। दूसरे शब्दों में स्व और पर की पहचान होने पर, जब 'पर' में अपनत्व का भ्रम छूटे तब भेद विज्ञान के द्वारा सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है। इस बात को एक छोटे से दृष्टान्त द्वारा भी समझी जा सकता है 225
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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