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________________ समझाया, किन्तु रावण ने किसी की नहीं मानी। विभीषण सरीखे विद्वान भाई ने भी समझाया परन्तु उसे भी घर से बाहर निकाल दिया। यह सब क्षणिक भोग-विलास की लालसा में फंसकर हुआ जो अपने आप के लिए तथा औरों के लिए अतिदुःख का कारण बना। रावण बुराई का प्रतीक और राम अच्छाई कर प्रतीक बन कर प्रसिद्ध हो गये। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव भोगों की ओर भागता है, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव भोगों को उदारता के साथ भोगता है। इस प्रकार दोनों की चेष्टाओं में जमीन-आसमान का अन्तर है। सम्यग्दृष्टि को जब क्रोध का उदय होता है तब वह सोचता है कि यह पुद्गल रूप कर्मद्रव्य और क्रोध का उदय रूप विपाक भाव है। यह मेरा आत्मीय भाव नहीं है, मैं तो निश्चय से इस भाव को जानने वाला हूँ। जो भावों में कलुषता हुई है, वह कर्म का रस है। मेरा ज्ञान स्वभाव इस रूप नहीं है, यह भाव पर है, इसलिए त्यागने योग्य है। सम्यग्दृष्टि विचारता है कि कर्मों के उदय होने पर उनका फल अनेक प्रकार का हुआ करता है। इन आठों ही कर्मों का उदय मेरी आत्मा का स्वभाव नहीं है। मैं तो ज्ञायकमात्र स्वभाव वाला हूँ। इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, रोग, शोक, भोग, शंका आदि अनेक अवस्थाएँ इस जीव के संसार में हुआ करती हैं। ऐसा सोचकर वह इनमें आसक्त नहीं होता है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने आप को ज्ञायक अर्थात् ज्ञाता दृष्टास्वभाव वाला ही अनुभव करता रहता है, और कर्मों के उदय को अपने से भिन्न जानकर एवं अपने आत्मतत्त्व को ही निज स्वभाव मानकर उसमें ही संतोष करता है। यही सम्यग्दृष्टि की सोच का सार है। ज्ञान- मूलाचार में लिखा है जेण तच्चं विवुज्झेज्जं, जेणं चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विमुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे ॥ ७० ॥ जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरुप जाना जा सके, जिससे मन विषयों में जाता हुआ रुक जाय, जिससे अपनी आत्मा शुद्ध हो जाय, जिनशासन में वही ज्ञान माना गया है। इसी बात को स्वामी समन्तभद्र इस प्रकार कहते हैं कि अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं बिना च विपरीतात् । निस्सन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ - रत्नक. श्री. 42 आगम के जानने वाले श्री गणधरदेव तथा श्रुतकेवली हैं, वे उस ज्ञान को ज्ञान कहते हैं जो वस्तु स्वरुप को परिपूर्ण जानता है, कम नहीं जानता है, अधिक नहीं जानता है, जैसा वस्तु का यथार्थ सत्य स्वरुप है वैसा ही जानता है, विपरीतता रहित जानता है, संशय रहित जानता है। 224
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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