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________________ हुए हैं। इस प्रकार की बुद्धि सम्यग्दृष्टि की नहीं हुआ करती वरन् मिथ्यादृष्टि की होती है। सम्यग्दृष्टि जीव की बुद्धि सब द्रव्यों से विलक्षण परम शुद्ध आत्मद्रव्य पर होती है। अत: वह अपने को बन्धरहित ही समझता है एवं अनुभव करता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन की महिमा अपार है, जिसका वर्णन यहाँ शब्दों में नहीं किया जा सकता। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की सोच में कितना बड़ा भेद होता है, यह निम्न दृष्टान्त द्वारा भी समझा जा सकता है राम की उदारता यद्यपि उदय में आये हुए कर्म के फल को मिथ्यादृष्टि की तरह सम्यग्दृष्टि भी भोगता है तथा अपने कषाय के अनुसार पाप के फल को बुरा और पुण्य के फल को अच्छा समझता है। अत: जब गृहस्थ अवस्था में होता है, तब पाप के फल से बचकर पुण्य के फल को बनाये रखने की यथासंभव बुद्धिपूर्वक चेष्टा करता है। किन्तु मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि की चेष्टाओं में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। जैसे खाने को पशु भी खाता है और मुनष्य भी, किन्तु पशु सिर्फ पेट पालने में ही लगा रहता है। उसे औचित्य-अनौचित्य का विचार नहीं रहता। मिथ्यादृष्टि की चेष्टा ऐसी होती है, जैसे कोई पशु भूसे के साथ में कोई काँटा, कंकर, मिट्टी हो तो उसे भी खा जाता है, जबकि मनुष्य उन्हें यत्नपूर्वक हटाकर अपने भोजन को साफ-सुथरा करके खाता है। सम्यग्दृष्टि की चेष्टा ऐसी होती है जैसे बछड़ा गाय का दूध पीता है, उससे बछड़ा भी सुखपूर्वक रहता है और गाय भी आराम से रहती है। अत: इसकी चेष्टा स्वयं के लिए और दूसरे के लिए भी लाभदायक होती है। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि औरों को कष्ट देता है और स्वयं भी कष्ट पाता है। जैसे-जौंक पराया खून चूसती है तो उसे तो कष्ट पहुँचता ही है स्वयं भी कष्ट उठाती है। इन दोनों में आचरण का बहुत अन्तर होता है। जैसे-कौम्बिक जीवन भोगने वाले राम भी थे और रावण भी था, किन्तु दोनों के आचरण में कितना भारी अन्तर था, उसे कोई भी साधारण बुद्धि वाला सहज में समझ सकता है। राम अपने पिता के वचन को रखना चाहते थे। माँ कैकेयी को भी दु:ख न पहुँचे, इसलिए अपने न्यायोचित राज्य को भी भरत के लिए दे दिया और स्वयं वनवास को चल दिये। रास्ते में भी जो कछ सम्पत्ति पाई वह भी औरों को अर्पण करते चले गये। इसी में उनको आनन्द प्राप्त होता था। जब सीता का हरण हुआ तब उनका पता लगाना और उन्हें शीघ्र से शीघ्र लाना एक आवश्यक बात थी, पर इसको प्रमुखता न देकर जब सुग्रीव मिला तब उससे बोले कि मैं पहले तुझे तेरी सुतारा दिलाता हूँ, वाह रे उदारता! वाह रे परोपकार! क्या कहना इस महानता के बारे में। दूसरी ओर रावण का चरित्र देखिए। रावण भी खरदूषण की सहायता के लिए रवाना हआ और रास्ते में उसने सीता को देख लिया तो खरदूषण की सहायता करने की बात को भूल गया और बीच में ही सीता का हरण कर लिया। लोगों ने उसे बहुत समझाया कि यह बात तुम्हारे योग्य नहीं है।, गुरुजनों ने भी 223
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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