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________________ गर्दन को समतोल रखती हुई बातचीत आदि क्रियाएँ करती हैं। गर्दन पर से अपना ध्यान नहीं हटाती हैं, हटावें तो घड़े गिर जावें। ठीक इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी सभी सांसारिक विषय-भोगों को कर्मों के उदय से भोगता है एवं सांसारिक कार्य सम्बन्धी क्रियायें भी करता है; परन्तु अपनी शुद्ध परिणति को अपने आत्मिक भावों से अलग नहीं करता। अत: सांसारिक भोगों को भोगता हुआ भी कर्म बन्धन को नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार जो सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाता है, वह अपने आत्मा का आनन्द प्राप्त करता रहता है। सम्यग्दर्शन सहित नारकी भी सुखी है और इसके अभाव में देव भी दु:खी हैं। ऐसी है सम्यग्दर्शन की महिमा। मिथ्यादृष्टि ग्यारह अंग और नौ पूर्व तक का ज्ञान रखने पर भी अज्ञानी है, और सम्यग्दृष्टि तिल-तुष मात्र जितना ज्ञान रखता हुआ भी ज्ञानी है। ज्ञान का चारित्र मूल्य तभी तक है जब सम्यक्त्व प्राप्त हो, वास्तव में सम्यग्दृष्टि ही सच्चा अनेकान्तवादी होता है। चारित्र को धैर्य के साथ पालन करने के लिये सम्यक्त्व ही अमोघ अस्त्र है। इस प्रकार वह महा तपस्या भी व्यर्थ है जिसके साथ सम्यग्दर्शन नहीं है। कहा है कि एक बार भी सम्यक्त्व हो तो उसका निर्वाण निश्चित हो जाता है। अज्ञानी करोड़ों जप तप करे तो भी कर्मों को नहीं काट सकता, किन्तु दर्शन से सहित ज्ञानी उन कर्मों को क्षण भर में काट देता है। मिथ्यात्व से अधिक बड़ा जगत् में कोई पाप नहीं है। सबसे तीव्र पाप यही है। सम्यग्दर्शन के समान कोई इष्ट नहीं है, क्योंकि यही संसार भ्रमण को मेटने वाला है। अतः सम्यग्दर्शन की महिमा अतुलनीय है। इस बात को आचार्य समंतभद्र स्वामी इस प्रकार कहते हैं कि न सम्यक्त्व समं किञ्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्॥ -रल.भा. 34 जीवों का सम्यग्दर्शन के समान तीनों काल और तीनों लोकों में अन्य कोई कल्याण करने वाला नहीं है तथा मिथ्यात्व के समान तीनों कालों और तीनों लोकों में अन्य कोई अकल्याण करने वाला नहीं है। ___ सम्यग्दृष्टि के प्रत्येक कार्य ज्ञानपूर्वक होते हैं-सम्यग्दृष्टि की प्रवृत्ति पाखण्ड की ओर नहीं होती। वह पाखण्ड को तीव्र कषाय कार्य मानता है। सम्यग्दृष्टि के जितने भी भाव होते हैं, लौकिक हों या पारलौकिक हों, वे सब ज्ञान द्वारा निहित हो जाते है। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि के जितने भी भाव होते हैं, वे सब अज्ञानता से ही उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि भाव मोक्षासक्त होते हैं और मिथ्यादृष्टि के भाव संसारासक्त होते हैं। ध्यानपूर्वक देखा जाये तो बंध तभी तक है जब तक यह ध्यान रहे कि मैं बंधा हूँ, मैं अशुद्ध हूँ, तथा रागी द्वेषी हूँ, या मैं मनुष्य देव-नारकी एवं तिथंच हूँ। अहंबुद्धि मिथ्यात्व कर्म के निमित्त से जड़ में चैतन्यपने की जड़ पकड़े 222
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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