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________________ संयतपना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त अठारह दोष रहित जिनेन्द्र देव, निग्रंथ गुरु और दयामय धर्म- ये तीनों उत्तम वस्तुएं हैं, ऐसा अटूट विश्वास करना भी सम्यग्दर्शन होने का कारण है, जैसा कि पं. दौलतराम जी लिखते हैं देव जिनेन्द्र गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो। येहुमान समकित को कारण, अष्टअंग जुत धारो ॥ आत्म हितैषी जीवों को निःशंकादि आठ अंगों के द्वारा इस सम्यक्त्व को दृढ़ करना चाहिए। सम्यग्दर्शन के आठ अंग- 1. नि: शकित अंग, 2. नि:काक्षित अंग, 3. निर्विचिकित्सा अंग, 4. अमूढदृष्टि अंग, 5. उपगूहन अंग, 6. स्थितिकरण अंग, 7. वात्सल्य अंग तथा 8. प्रभावना अंग माने गये हैं। निर्मल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए आठों अंगों का पूर्ण होना आवश्यक है तथा साथ ही पच्चीस दोषों से भी रहित होना परम आवश्यक है। आठ अंगों के विपरीत अर्थात् - 1. शंका, 2. कांक्षा, 3. विचिकित्सा, 4. मूढदृष्टि, 5. अनूपगूहन, 6. अस्थितिकरण, 7. अवात्सल्य और 8 अप्रभावना-ये आठ दोष माने गये हैं। इसके अतिरिक्त आठ मद - 1. कुल मद, 2. जातिमद, 3. रूपमद, 4. ज्ञान मद, 5. धन मद, 6. बल मद, 7. तप मद, और 8 प्रभुता मद- ये आठ मद अर्थात् मान माने गये हैं, जो सम्यग्दर्शन को मलिन करते हैं। इसके अलावा तीन मूढ़ताएँ - 1. लोक मूढ़ता, 2. देव मूढ़ता, और 3. गुरु मूढ़ता ये तीन मूढ़ताएँ भी मानी जाती हैं। इसके अतिरिक्त छः अनायतन - 1. कुगुरु सेवक, 2. कुदेव सेवक, 3. कुधर्म सेवक, तथा 4. कुगुरु की प्रशंसा करने वाले, 5. कुदेव की प्रशंसा करने वाले और 6. धर्म की प्रशंसा करने वाले इन छहों को सम्यग्दृष्टि नमन नहीं करता अर्थात् इन्हें वह नहीं मानता, यदि माने तो सम्यर्शन में दोष आता है। इस प्रकार उपर्युक्त पचीस दोष सम्यग्दर्शन के माने गये हैं, इनसे हमेशा बचकर रहना चाहिए। इसका विस्तृत विवेचन " सम्यग्दर्शन का स्वरूप" के अन्तर्गत पूर्व में किया जा चुका है। इस प्रकार आठ अंग सहित और पच्चीस दोषों से रहित सम्यग्दर्शन की महिमा अपार है, जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। सम्यग्दर्शन की महिमा - सम्पूर्ण जीवन का सार सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन हुए बिना सब व्यर्थ है। सम्यग्दृष्टि का ध्यान हमेशा अपनी आत्मा की ओर ही लगा रहता है। इसको निम्न दृष्टान्त द्वारा भी समझा जा सकता है पनिहारन का ध्यान दो पनिहारन अपने-अपने सिर पर पानी का घड़ा लिये जा रही हैं। घड़ों को वे अपने हाथों से नहीं थामे हुए हैं। वे आपस में बातचीत करती हुयी हँसती हुई जा रही हैं, किन्तु वे घड़े उनके सिर से नहीं गिरते हैं। इसका करण यह है कि उनका ध्यान उन घड़ों पर ही है। अतः वे अपनी 221
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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