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सम्यक् चारित्र का दूसरा सोपान दर्शन-ज्ञान की एकता
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कल सम्यग्चारित्र को धारण करने के चार सोपानों में से प्रथम सोपान का विवेचन किया गया था। आज इसके दूसरे सोपान "दर्शन- ज्ञान की एकता" पर विवेचन करेंगें। सम्यग्चारित्र को धारण करने के लिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एकता परम् आवश्यक है। सम्यग्दर्शन के लिये पहले श्रद्धान की आवश्यकता होती है और श्रद्धान के लिए ज्ञान की। क्योंकि जानेगें नहीं तो श्रद्धान किस पर करेंगे, यहां आशङ्का सकती है कि सर्वत्र शास्त्रों में ज्ञान आराधना से पहले दर्शन आराधना क्यों की गयी है, इस शंका का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि यह ठीक है कि ज्ञान पहले होता है, किन्तु इसमें सच्चाई पहले नहीं आती । ज्ञान में सच्चाई सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाने के बाद ही आती है। इसलिए पहले सम्यग्दर्शन का वर्णन करना ही न्यायसंगत है । सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान की भी अपार महिमा है। ज्ञान के समान कोई दूसरी पवित्र वस्तु इस संसार में नहीं है। ज्ञान ही कर्मों के नाश का कारण है। सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यग्चारित्र कभी नहीं हो सकता। इसलिए सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान की एकता के बिना सम्यक्चारित्र का होना असंभव है। इनमें कौन पहले प्रकट होता है, इसके सन्दर्भ में पं. दौलतराम जी कहते हैं कि
सम्यक् साधै ज्ञान होय, पै भिन्न लक्षण "श्रद्धा" जान, दुहू में भेद सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है युगपत होते हू, प्रकाश दीपक तैं
अराधौ ।
अबाधौ ॥
सोई ।
होई ॥
छहढाला चतुर्थ ढाल,
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों ही भव्य आत्मा में एक साथ उत्पन्न होते हैं। फिर भी इन दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न है। सम्यग्दर्शन का लक्षण तो सच्ची श्रद्धा है और सम्यग्ज्ञान का लक्षण सही ज्ञान है। इस तरह लक्षण भेद से दोनों भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु दोनों साथ होने पर भी इन दोनों में कार्य-कारण भाव माना जाता है। सम्यग्दर्शन को कारण मानकर सम्यग्ज्ञान को उसका कार्य कहा जाता है। जिस प्रकार दीपक और प्रकाश दोनों साथ होते हैं तथा फिर भी प्रकाश दीपक से हुआ ऐसा कहा जाता है। सम्यग्दर्शन के द्वारा सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, अतः सम्यग्दर्शन को कारण माना जाता है।
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सम्यक् दर्शन की संक्षिप्त व्याख्या
जिनेन्द्र भगवान् ने जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- इन सात तत्त्वों का जैसा स्वरुप बताया है, उनका ज्यों का त्यों सच्चा श्रद्धान करना, व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है। इन तत्त्वों के श्रद्धान के साथ शरीर से भी निर्मम भाव होना चाहिए और निर्मम भाव के लिए