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द्वीपायन मुनि
द्वीपायन मुनि की कथा शास्त्रों में बहुत रोचक है। वह इस प्रकार है। नौवें बलभद्र ने श्री नेमिनाथ तीर्थङ्कर से उनके समवशरण में पूछा कि है स्वामिन्, ये द्वारकापुरी समुद्र में है, इसकी स्थिति कितने समय तक है, प्रभू कहते हैं कि रोहिणी का भाई द्वीपायन, तेरा मामा, बारह बर्ष बाद मद्य के कारण क्रोध करके इस द्वारिकापुरी को जला देगा। इस प्रकार भगवान के वचन सुन निश्चय कर द्वीपायन दीक्षा लेकर पूर्व देश में चला गया। बारह वर्ष व्यतीत करने के लिए तप करना शुरू किया बलभद्र नारायण ने द्वारिका में यह घोषणा करा दी कि यहाँ मद्य की एक बूँद भी नहीं रहेगी। समस्त शराब बाहर पर्वत आदि पर बहा दी गयी, जो कि जल के स्रोतों में पहुँच गयी। अब बारह बर्ष बीते जानकर द्वीपायन मुनि द्वारिका आकर नगर के जंगल में आतापन योग धारण कर रहने लगे। इसी दौरान संभवकुमार आदि जंगल में खेलने जाते है प्यास से व्याकुल हो वही शराब के कुंडों में से पानी समझ उसे पीते हैं। नशा चढ़ता है, द्वीपायन मुनि को खड़ा देखते है और कहते है "यह द्वारिका को भस्म करने वाला द्वीपायन है" इस प्रकार भला बुरा कहकर पत्थर आदि मारते हैं, गाली देते हैं। द्वीपायन मुनि भूमि पर गिर पड़ते हैं और उनको क्रोध आ जाता है। बाँये हाथ से एक हाथलम्बा पुतला निकलता है और द्वारिका को भस्म करके उस को भी भस्म कर देता है। ये मुनि मरकर नरक में जन्म लेते हैं इस प्रकार अशुभ में प्रवृत्ति कर अन्ततः दुख को प्राप्त होते हैं।
आजकल मुनियों को अपने अकर्तव्य कर्मों का ध्यान नहीं है। ऊपर जिन विपरीत क्रियाओं का वर्णन किया गया है वे, मात्र संकेत मात्र ही हैं। आज प्रायः मुनियों की स्वछन्द प्रवृत्ति दिखाई देती है। सभी मनमानी कर रहे हैं। अपने मुख्य धर्म अहिंसा व्रत की रक्षा का भी उन्हें ध्यान नहीं है। आज निम्न श्रेणी में उतर आये हैं। पड़गाहन के समय यदि छोटी भी गलती हो जावे तब वे ऐसे लौट जाते हैं मानो अनर्थ हो गया हो। जैन परम्परानुसार भक्तियाँ नौ ही होती हैं, न अधिक न कम, पर आज के मुनि जब तक अपनी मनमानी कर दो-चार भक्ति न करा लें, तब तक उन्हें सन्तोष नहीं होता। उनकी ऐसी प्रवृत्ति से आहार देने वाले श्रावक बहुत परेशान हो जाते हैं। जैनधर्म निवृत्ति प्रधान है, प्रवृत्ति प्रधान नहीं है। नकुल और सहदेव शुद्धोपयोग से गिरकर शुभोपयोग में प्रवर्तने के कारण सर्वार्थसिद्धि को गये। सुखमाल और चारुदन्त मुनिराज भी शुद्धोपयोग में स्थिर न रहने के कारण सर्वार्थसिद्धि में गये, जबकि सुकौशल मुनिराज ने शुद्धोपयोग की दृढ़ता से केवल ज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त किया।
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