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________________ 5. चलते समय बातचीत करना-एक समय में एक ही कार्य अच्छी तरह से हो सकता है। एक साथ दो उपयोग स्थिर नहीं हो सकते। मुनि यदि चलते समय बात करेंगे तो ध्यान बातों में रहेगा। ईर्या समिति का पालन नहीं हो पायेगा। 6. रात्रि के समय बोलना-यह देखा जाता है कि कभी कभी मुनि रात्रि को भी वार्तालाप करते हैं। बोलने में हिंसा होती है। मुनि जिससे बात करेगा वह भी बोलेगा, इस कारण दोनों को कहीं आना-जाना भी संभव है, जिसमें हिंसा का होना निश्चित है। इस वार्तालाप का अपवाद भी है। धर्म के प्रयोजन हेतु मुनि रात्रि में बोल सकते हैं, किन्तु प्रायश्चित लेना होगा। मुनि अधिकतर मौन ही रखते हैं। वे दिन में भी बिना प्रयोजन नहीं बोलते हैं, उसमें भी हित-मित प्रिय का ध्यान रखते हैं, अन्यथा भाषा समिति का पालन नहीं हो सकता। जो निग्रंथ मुनि भाव से निग्रंथ नहीं है और मनमानी करते हैं उनके लिए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि दव्वेण सयल णग्गा णारयतिरिया च सयलसंधाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता॥ - अष्टपाहुड 67 द्रव्य से वाह्य में तो सब प्राणी नग्न ही होते हैं। नारकी व तिर्यंच जीव तो सदा वस्त्रहीन ही रहते हैं, इस अपेक्षा से वे भी मुनि ठहरे, इसलिए मुनिपना भाव शुद्ध होने पर ही होता है। अशुद्ध भाव होने पर बाह्य से नग्न भी हों तो भाव मुनिपना नहीं होने से मुनि नहीं कहला सकते। अतः सच्चे श्रमण वही होते हैं, जो भाव से भी नग्न होते हैं। उपर्युक्त मुनियों की विपरीत क्रिया के अतिरिक्त श्रावकों की भी आगम के विपरीत क्रियाएं चल रही हैं। आर्यिकाओं, ऐल्लक, क्षुल्लक द्वारा अपनी पूजा करवाने का प्रसंग कहीं भी आगम में नहीं आता है। अतः इस प्रकार की क्रियाएं आगम के बिल्कुल विपरीत है। हवाई जहाजों में घूमना, समय पर सामायिक न करना, अभक्ष्य का भक्षण करना- ये सब क्रियाएं अशुभ क्रियाएँ है। शुभ से हटकर अशुभ में प्रवृत्ति है। जहां मुनिधर्म व श्रावक धर्म में ये प्रवृत्तियाँ हो रही हैं, वे सब दुःख रूप ही हैं। इनको निम्न दृष्टान्तों द्वारा भी समझा जा सकता है वशिष्ठ तपस्वी गंगा और गंधवती दोनों नदियों का जहाँ मिलन हुआ है, वहाँ जठर कौशिक नाम के तापसी का एक आश्रम था। वहाँ एक वशिष्ठ नाम का तपस्वी पंचाग्नि तप किया करता था। वहां गणभद्र और वीरभद्र नाम के दो चारणऋद्धि धारी मनि आकर उस तपस्वी से कहते हैं कि त अज्ञान तप करता है. इसमें हिंसा होती है। तपस्वी ने प्रत्यक्ष हिंसा देखी और विरक्त हो जिन दीक्षा - 217
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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