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सकता है, किसी कवि ने लिखा है
फूटी आँख विवेक की, सूझ पड़े नहिं पन्थ।
ऊँट बलंध लादत फिरै, तिनसों कहत महन्त। आचार्य कुन्दकुन्द इस प्रकार कहते हैं
सम्मूहदि रक्खे दि य अट्ट झाएदि बहु पयत्तेण। सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो॥
- अष्टपाहुड-लिंगपाहुड, 5 जो निग्रंथ मुनि परिग्रह को संग्रह रूप रखता है उसकी इच्छा, चिंतन व समत्व करता है तथा उन वस्तओं की रक्षा करता है. तथा उसके लिए आर्तध्यान करता है. वह मनि पाप से ग्रसित बुद्धि वाला है, पशु समान है, ज्ञान रहित है। वह मुनि अपने श्रमणत्व को
बिगाड़ता है। 3. पत्र व्यवहार करना एवं मोबाइल फोन से संपर्क करना-साधु ने संग के सब सम्बन्धों
का त्याग करके दीक्षा धारण की है। किसी के साथ किसी प्रकार का प्रेम होता है, तब ही पत्र व्यवहार किया जाता है। जो साधु पत्र व्यवहार करता है अथवा दूसरे को कहकर उसके द्वारा पत्र व्यवहार करवाता है या फोन करवाता है, वह त्यक्त मोह का पुनः सम्बन्ध करता है। आजकल इसका स्थान मोबाइल फोन जैसे आधनिक संचार के साधन ले रहे हैं। मोबाइल फोन वगैरह ये सब परिग्रह के प्रकार हैं। कुन्दकुन्द कहते हैं कि
जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिण्हदि हत्थेसु। जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तोपुण जाइ ग्गिोदम् ॥
- अष्टपाहुड, 18 मुनि यथाजात रूप दिगम्बर निग्रंथ को कहते हैं। इस प्रकार होकर भी यदि ये अपने पास कण मात्र भी परिग्रह रखे तो जान लेना चाहिए कि इनको जिनसूत्र की श्रद्धा नहीं है, अर्थात् मिथ्यात्व अभी गया नहीं है, मिथ्यात्व का फल निगोद ही है, इसलिए निग्रंथ मुनि को परिग्रह नहीं रखना चाहिए। नाटक आदि देखना-आजकल कुछ मुनि नाटकादि भी देखने लग गये हैं, किन्तु आत्मिक रंग में रंगने वाले मुनियों के लिए इसे कैसे उचित कहा जाये, सच्चे दिगम्बर वैराग्य की मूर्ति साधु को राग वर्धक नाटकों का देखना तो दूर यदि मन भी उधर दौड पड़े तो उसे भी दोषजनक मानते हैं। ये सब कार्य सांस्कृतिक आयोजनों में देखे जा सकते हैं।
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