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________________ जैसे-आरती करना और करवाना, बाजे बजवाना, दीपक जलाना और जलवाना, जन्मदिन और दीक्षादि दिवस मनवाना, परिग्रह संग्रह करना, रात्रि में बोलना, साथ में महिला संघ रखना, गर्मियों में कूलर-पंखे-ऐ.सी. आदि लगवाना, सर्दियों में हाइड्रोजन, अंगीठी, मरकरी आदि लगवाना, वर्षाऋतु में मच्छरदानी, गुडनाइट, कछुआ छाप अगरबत्ती आदि क्रियाओं का समर्थन करना, पदमावती-क्षेत्रपाल आदि का पूजने-मानने का प्रचार-प्रसार करना, रात्रि में तेल-मालिश करना-करवाना, हल्दी, टमाटर, पपीता, भिण्डी, तरबूज, पत्ती वाली वनस्पति, आडू, लीची, टाटरी, पत्थर बेल, कैथ (कटुम्बर) जो काठ को फोड़कर निकलते हैं, इनमें फूल नहीं आते, ऐसे अभक्ष्य वस्तुओं को खाना, इसके अतिरिक्त हींग, मखाना आदि सब अभक्ष्य पदार्थों को ग्रहण करना, केशलोंच क्रिया का आयोजन करना, विहार के साथ चौके आदि की व्यवस्था कर चलना, गाड़ियाँ-मोटर-कार साथ ले चलना, स्त्रियों के सम्पर्क से भय न खाना आदि ऐसी विपरीत क्रियाएँ हैं जो मुनि को अशुभ प्रवृत्ति कराती हैं। साथ में ब्रह्मचारणियों को रखना तो महादोष है। आ. कुन्दकुन्द कहते हैं कि रागं करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेदि। दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ - अष्टपाड-लिंगपाहुड, 17 जो जिनलिंग धारण करता है, महिलाओं में राग-भाव रखता है और जो निर्दोष को दोष लगाता है, वह मुनि दर्शन और ज्ञान से रहित होता है। ऐसे मुनि तो पशु समान हैं, ज्ञान रहित हैं, अत: वे श्रमण नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त मूलगुणों की उपेक्षा कर जो नाना प्रकार की प्रवृत्ति कर अशुभ में प्रवर्तते हैं उनके कुछ उदाहरण निम्न है मुनि की विपरीत क्रियाएं1. भिक्षा भोजन के पश्चात् दान करवाना-आजकल आहार होने के पश्चात् प्रायः देखा जाता है कि कतिपय साधु आहार दाता श्रावक से द्रव्य दान करवाते हैं। यह प्रवृत्ति दिगम्बर मुनियों के पद के विरूद्ध धर्म का ह्रास करने वाली है। यह शुभ प्रवृत्ति से अशुभ प्रवृत्ति में जाना है। 2. विभिन्न संस्थाओं के साथ सम्बन्ध रखना-बहुत से मुनि विभिन्न संस्थाओं से सम्बन्ध रखते हैं। यह सर्वथा मुनि आचरण के विरूद्ध है। जो 14 प्रकार के अन्तरंग परिग्रह तथा 10 प्रकार के वाह्य परिग्रह के त्यागी होते हैं, वे कैसे विभिन्न संस्थाओं से सम्पर्क रख सकते हैं। ये सब क्रियाएं उनके विवेकहीन होने का ही प्रमाण है। साधु तो वही होता है जिसके पास तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं होता, फिर परिग्रह रखने वाला मुनि कैसे हो -2153D
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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