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नहीं आने देते तथा सर्तक करते रहते हैं। इसलिए कर्मों के निर्मूल करने के लिए मुनि को इनकी ओर विशेष ध्यान रखना चाहिए। आवश्यक शब्द का अर्थ- जो प्राणी कषाय और राग-द्वेष वशीभूत न हो वह अवश है, अवश के आचरण एवं कर्तव्य को आवश्यक कहते हैं। आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि
सामाइय चउवीसत्थव वदणयं पडिक्कमणं । पच्चक्खाणं च तहा काओसग्गो हवदि छट्ठो ॥
- मूलाचार, 516
1. सामायिक, 2. चतुर्विंशतिस्तव, 3. वंदना, 4. प्रतिक्रमण, 5. प्रत्याख्यान, 6. कायोत्सर्गइस प्रकार ये छ: भेद रूप आवश्यक माने गये हैं।
कहीं कही ग्रन्थों में सामायिक आवश्यक के स्थान पर समता आवश्यक भी दिया गया हैक. समता- किसी को भला और किसी को बुरा आदि न मानकर सबके ऊपर एक सी निगाह रखना, समता है।
ख. स्तुति-मुनि जन स्वयं समता के धारी होते हैं एवं समता धारियों का बहुमान ( प्रशंसा ) करना, स्तुति है।
ग. वन्दना-समता के समर्थक जिन भगवान की वन्दना, नमस्कार करना, वन्दना है।
घ. स्वाध्याय-वैराग्यवर्द्धक शास्त्रों का पठन-पाठन करना, स्वाध्याय है।
ड. प्रतिक्रमण - अपने सदाचार में आये हुए दोषों को संशोधन करना, प्रतिक्रमण है।
च. कायोत्सर्ग- शरीर से मोह ममता नहीं रखना, सीधे खड़े होकर आत्मध्यान करना, कायोत्सर्ग है।
इस प्रकार ये मुनियों के छः आवश्यक माने गये हैं।
सात शेष गुणों का स्वरूप - मुनियों के सकलचारित्र में 28 मुलगुणों में निम्न सात मूल
गुण और माने गये हैं, प. दौलतराम जी छहढाला की छठीं ढाल में लिखते हैं
जिनके न न्हौन, न दन्तधावन, लेश अम्बर आवरन । भूमांहि पिछली रयनि में, कुछ शयन एकासन करन ॥ इकबार दिन में ले अहार, खड़े अलप निज पान में। कचलोंच करत न टरत परिषह सों लगे निज ध्यान में ||
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