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________________ के बेसुरे शब्दों में द्वेष सहित न होना कर्ण इन्द्रिय विजय है। दूसरे शब्दों में सचेतन एवं अचेतन पदार्थो से उत्पन्न कर्ण प्रिय मनोहर शब्दों को सुन कर उसमें आसक्त न होना और कर्ण कटु, असुहावने शब्दों को सुनकर उनमें द्वेष न करना ही कर्ण इन्द्रिय विजय है। एक बार गाँधी जी दिल्ली की हरिजन बस्ती में ठहरे हुए थे। मई का महीना था। गर्मी बहुत पड़ रही थी। उनकी पोती मनु ने एक गिलास आम का रस उन्हें पीने को दिया। गाँधी जी ने उसका भाव पूछा तो पता चला कि ढाई रुपयों के आम में से एक गिलास रस तैयार हुआ है। गाँधी जी मनु पर बहुत क्रोधित हुए, बोले-इतने आम क्यों लाई? फिर बोले कि बिना आम खाये भी जीवित रह सकता हूँ। एक गरीब देश में ढाई रुपये खर्च कर दिये, कहाँ की बुद्धिमत्ता है? उसी समय उन्होंने रस पीने से इंकार कर दिया और एकाएक गम्भीर हो गये। उनकी आन्तरिक वेदना को मनु ने समझा, परन्तु कर भी क्या सकती थी। उसी समय दो गरीब महिलाएं गाँधी जी के दर्शन करने आयीं। उनके साथ दो बालक भी थे। गाँधी जी ने प्यार से उन्हें अपने पास बुलाया और रस को दो गिलासों में डाल, उन्हें पीने को दे दिया। जब वे रस पी चुके तो बोले-ईश्वर ने मेरी वेदना समझी और मेरी मदद के लिए इन बच्चों को भेज दिया। मुझे बड़ी आत्म ग्लानि हुई थी। मैं अपने को दोषी मान रहा था। मुझमें कुछ न कुछ बुराई है जो मेरे लिए इतने मँहगे आमों का रस निकाला गया लेकिन भगवान की मुझपर अपार कृपा भी है, मुझे दोष से बचाने के लिये उन्होंने इन दोनों बालकों को भेज दिया। मनु अपने कृत्य पर पश्चाताप कर रही थी। उस दिन के बाद उसने महंगी वस्तु न लाने का निर्णय कर लिया। कहा गया है राग विरोध उठै जब लो, तब लो यह जी न मृषा मृग धोवे। ज्ञान जग्यो जब चेतन को तब कर्म दशा पर खप कहावे॥ कर्म विलक्षण करे अनु भो तहा, मोह मिथ्यात्व प्रवेश न पावे। मोह गये उपजे सुख केवल, सिद्ध भयो जग माहिन आवे॥ वस्तुत: जिस प्रकार अन्धे के लिए नाच, अज्ञानी के लिए तप, आयु के अन्त में औषधि का प्रयोग, बहरे के लिए मधुर गीतों का गाना, ऊसर भूमि में अन्न का बोना, बिना प्यास मनुष्य को जल देना, चिकने पृष्ठ पर चित्र का खींचना अभव्य को धर्म की रुचि कहना, काले कपडे पर केसरिया रंग, प्रतीति रहित पुरुष के लिए मंत्र का प्रयोग करना कार्यकारी नहीं होता, ठीक उसी प्रकार आत्मा में जिसका प्रेम नहीं, उस मानव का बाह्य चारित्र कार्यकारी नहीं हो सकता। सच्चा चारित्र आत्मा में से विभाव परिणति दूर हो, स्थिरता आवे तथा संसार छुटे, तभी सम्यक चारित्र कहला सकता है। षट् आवश्यक-मुनियों के मूलगुण में षट् आवश्यकों का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। मुनि यदि इसकी उपेक्षा करे तो वह कर्तव्य विमुख हो जाता है षट् आवश्यक मुनि के जीवन में प्रमाद 210
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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