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________________ तीन गुप्तियों का स्वरुप सम्यक प्रकार निरोधमन, वच, काय आतम ध्यावते। तिन सुथर मुद्रा देखि मृगगण उपलखाज खुजावते॥ मन, वचन और काय को एकाग्र करके आत्मा का चिन्तन-मनन करना, ध्यान है। इस ध्यान की अवस्था में हिरण आदि जंगल के पशु जिन्हें पत्थर का खम्बा समझकर खाज खुजाने लगते हैं फिर भी मुनि ध्यान से विचलित नहीं होते इसी को तीन गुप्ति विजय कहा गया है। पाँच इन्द्रिय निरोध पाँच समितियों का भली प्रकार से पालन करके पाँचों इन्द्रियों को जीतना चाहिए। स्पर्शन आदि पाँचों इन्दियों के विषय-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द सुहावने भी होते हैं और असुहावने भी। उनमें कुछ भी राग-द्वेष नहीं करना, मुनियों का पंचेन्द्रिय विजय नाम के मूलगुण हैं। पं० दौलतराम जी के शब्दों में रस रूप गंध तथा फरस अरु, शब्द शुभ असुहावने। तिन में न राग विरोध पंचेन्द्रिय, जयन पद पावने। 1. स्पर्शनेन्द्रिय विजय-हलका-भारी, ठण्डा-गर्म, रूखा-चिकना, कठोर नर्म इन जीव व अजीव से सम्बन्ध रखने वाले आठ प्रकार के स्पर्शों के इष्ट में राग न करना और अनिष्ट में द्वेष नहीं करना, स्पर्शन इन्द्रिय विजय है। 2. रसना इन्द्रिय विजय-दाल-भात-रोटी आदि अन्न, इलाचयी, सुपारी आदि खाद्य, रबड़ी-चटनी आदि लेह्य तथा दूध-पानी आदि पेय ऐसे चार प्रकार के आहार में इष्ट-अनिष्ट भाव नहीं रखना, गृद्धता नहीं रखना, भूख की वेदना उपशमन करने लिए आहार लेना, उसमें किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं करना, रसना इन्द्रिय विजय है। 3. घ्राणेन्द्रिय विजय-कमल, केतकी, मोगरा, चमेली आदि सचित्त द्रव्य तथा केशर, चन्दन आदि अचित्त द्रव्यों की मनोज्ञ गन्ध में राग नहीं करना तथा विषय मूत्रादि दुर्गन्धमय पदार्थों में घृणा या द्वेष नहीं करना, किन्तु स्वरूप विचार कर समभाव रखना यह घ्राणेन्द्रिय विजय है। 4. चक्षु इन्द्रिय विजय-सचित्त तथा अचित्त पदार्थों की आकार या वर्ण भेदों में राग-द्वेष न __ करना चक्षु इन्द्रिय विजय है। 5. कर्ण इन्द्रिय विजय-चेतन के द्वारा उत्पन्न सात स्वरों मय सुरीले शब्दों में तथा अचेतन मृदंग-वीणा आदि द्वारा उत्पन्न सुरीले शब्दों में राग सहित न होना तथा गधा, कौआ, आदि - 209
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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