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जाता है। इसी को समिति कहते हैं। इस प्रकार जब मुनिराज निवृत्ति रूप महाव्रत में नहीं ठहर सकते, तब भली प्रकार देखकर विचारपूर्वक मन, वचन, काय से यथायोग्य श्रुतानुकूल प्रवृत्ति करते हैं। ये समितियाँ निम्न पाँच प्रकार की होती हैं।
इरिया - भासा - एसण-णिक्खेवादाणमेव समिदीओ। पदिठावणिया य तहा उच्चारादीण पंचविहा ॥
- मूलाचार 10
ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति, प्रतिष्ठापन समिति इन पाँच समितियों में ही संसारी जीवों का सम्पूर्ण व्यवहार गर्भित हो जाता है।
1. ईर्या समिति - ईर्ष्या का अर्थ - गमन होता है, चार हाथ आगे भूमि देखकर शुद्ध मार्ग मे चलना, चलने में षट्काय जीवों की विराधना नहीं करना ईर्या समिति है।
2. भाषा समिति -हित-मित और प्रिय वचन बोलना। भाषा समिति ही मुनि को लोक में पूज्य बनाती है। सत्य वचन का आवश्यकतानुसार उच्चारण करना ही भाषा समिति है। कर्कश, गर्वयुक्त, निष्ठुर, उपहास एवं व्यर्थ भाषण नहीं देना चाहिए। इसमें वह शक्ति है, जिससे कर्म बन्धन ढीले हो जाते हैं। कषाय रहित वचनों में एक प्रकार का आकर्षण हुआ करता है, इसलिए वचन बोलने में साधुओं को सदा सावधान रहना चाहिए।
3. एषणा समिति - श्रावक के घर विधिपूर्वक दिन में एक बार निर्दोष आहार लेना एषणा समिति है। 46 दोष तथा 32 अन्तराय रहित शुद्ध प्रासुक भोजन धर्म साधन में सहायक होता है।
रखना,
4. आवान निक्षेपण समिति- सावधानी पूर्वक निर्जन्तु स्थान को देखकर वस्तु को देना तथा उठाना, शास्त्र पिच्छी कमण्डलू इत्यादि को पहले अच्छी तरह देखना, फिर बड़ी सावधानी से पिच्छी से परिमार्जन करके उठाना एवं रखना आदान निक्षेपण समिति है।
5. प्रतिष्ठापन समिति-जीव रहित जन संचार रहित, हरित काय व त्रस जीव आदि रहित तथा बिल व छेदों से रहित, जहाँ लोक निन्दा न करें, कोई विरोध न करे ऐसे स्थान पर मल-मूत्रादि करना प्रतिष्ठापन समिति है।
6. समिति पालन की महिमा-जैसे रणभूमि में दृढ़ कवच धारण करने वाला पुरुष वाणों की वर्षा में भी वाणों से नहीं भेदा जाता, उसी प्रकार समिति धारक साधु षट्कायिक जीवों से व्याप्त लोक में प्रवृत्ति करता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता ।
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