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2. अचेतन परिग्रह - उपर्युक्त चेतन परिग्रह को छोड़कर शेष अचेतन परिग्रह है।
दोनों ही प्रकार का परिग्रह जीव के लिए अहितकर है। वह एक प्रकार का जाल है जो दूर से दिखने में बहुत ही सुन्दर प्रतीत होता है। अतः यथासंभव इनसे बचना चाहिए।
अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँ- आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच ॥
- तत्त्वार्थसूत्र अ. 78
स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट विषयों के प्रति राग-द्वेष का त्याग करना ही पाँच अपरिग्रह व्रत की भावनाएँ है। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
1. स्पर्शन इन्द्रिय- इसके द्वारा शीत-उष्ण, रूखा-चिकना, कोमल-कठोर, हलका भारी इन आठ स्पर्शों का ज्ञान होता है। अतः ये ही इस इन्द्रिय के 8 विषय हैं। इनमें से जिस स्पर्श वाली पुद्गल द्रव्य के विकार रूप वस्तु अपने को अच्छी लगे, उनमें तो राग न करना और जो वस्तु अपने को अच्छी न लगती हो उस में द्वेष न करना । यही स्पर्शन इन्द्रिय के विषय में राग-द्वेष के वर्णन वाली पहली भावना है।
2. रसना इन्द्रिय- इसके द्वारा मीठा, खट्टा, कडुआ, चरपरा, कसैला इन पाँच रसवा वस्तुओं का स्वाद लिया जाता है। इनमें से जो स्वादिष्ट लगे उसमें राग और जो अस्वादिष्ट लगे उसमें द्वेष का न करना, यह रसना इन्द्रिय के विषय में राग-द्वेष का त्याग है।
3. घ्राण इन्द्रिय- इसके द्वारा सुंगंध - दुर्गंध को ग्रहण किया जाता है। सुगंधित इत्र-पुष्पादि में राग व दुर्गंध - विष्टा मल-मूत्रादि में द्वेष का त्याग करना चाहिए।
4. चक्षु इन्द्रिय- इसके द्वारा काला, पीला, नीला, लाल और सफेद इन पाँच रंगों का ग्रहण होता है। इन पाँच वर्णमय इष्ट पदार्थों में राग व अनिष्ट पदार्थों में द्वेष का त्याग करना चक्षु इन्द्रिय के विषय में राग-द्वेष त्याग नाम की चौथी भावना है।
5. कर्ण इन्द्रिय- इसके द्वारा अच्छे-बुरे शब्द सुने जाते हैं, इनमें अच्छे में राग व बुरे में द्वेष न करना इस इन्द्रिय का रागद्वेष त्याग है।
पाँच समितियाँ- मुनिराज त्रस और स्थावर जीवों को बचाने के लिए नवकोटि आरम्भ के त्यागी होते हैं। धर्म निवृत्ति रूप में आचरण ही कर्म बन्धन का विनाश करता है तो भी मुनियों को कुछ प्रवृत्ति रूप चलना-फिरना, खाना स्वाध्याय करना, उपदेश देना, पुस्तकादि धरना-उठाना इत्यादि कार्य करना पड़ता है। इनके लिए प्रमाद रहित यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करना आवश्यक हो
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