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________________ अहिंसाणुव्रत - 'त्रस हिंसा को त्याग, वृथा थावर न संधारे' अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा सर्वथा नहीं करना और बिना मतलब स्थावर जीवों की हिंसा भी नहीं करना अहिंसाणुव्रत है। सत्याणुव्रत- 'पर वध कर कठोर, निंद्य नहिं वचन उचारै' अर्थात् जिस वचन के बोलने से दूसरे से किसी जीव का घात होता हो अथवा जो सुनने में कठोर हो और जिसके सुनने से लोग लज्जित हो जाते हों ऐसे वचन नहीं बोलना, सत्याणुव्रत है। अचौर्याणुव्रत- 'जल मृतिका बिन और, नहिं कछु गहे अदत्ता' अर्थात् जिन्हें प्राप्त करने में कोई रुकावट नहीं होती ऐसे पानी और मिट्टी के सिवाय अन्य कोई भी वस्तु बिना दिये नहीं लेना, अचौर्याणुव्रत है। ब्रह्मचर्याणुव्रत - 'निज वनिता बिन सकल, नारि सो रहे विरत्ता' अर्थात् अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय शेष सभी स्त्रियों को माता बहन के समान समझना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। परिग्रहपरिमाणुव्रत- 'अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै' अर्थात् अपनी शक्ति को देखकर जीवन भर के लिए परिग्रह का परिमाण करना सो परिग्रह परिमाणुव्रत है। गुणव्रतों का स्वरुप 1. दिग्व्रत दश दिश गमन प्रमान ठान, तसु सीम न नाखै। दशों दिशाओं में आने जाने की मर्यादा निश्चित करके जीवन पर्यन्त उसका उल्लंघन नहीं करना, दिग्व्रत है। 2. देशव्रत बजारा । ताहू में फिर ग्राम, गली गृह बाग गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा ॥ अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिए जो दिग्व्रत धारण किया था उसमें भी और संकोच करके कुछ समय तक के लिए किसी गाँव, गली, बगीचा, बाजार आदि तक आने जाने की मर्यादा कर लेना और उससे बाहर नहीं जाना, देशव्रत है। 3. अनर्थदण्डव्रत काहू की धन हानि, किसी जय- हार न चिंतै। देयन सो उपदेश, होय अघ व निज कृषि तैं । 196
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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