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________________ तथा जिन वचनों के श्रद्धानी हैं, न्यायमार्ग का उल्लंघन नहीं करते हैं और पापों से डरते हैं, ऐसे ज्ञानी गृहस्थों के विकल चारित्र है। सागार अर्थात् परिग्रह सहित श्रावक का कैसा संयमपूर्ण आचरण हो उसे आचार्य कुन्दकुन्द देव अष्टपाहुड के चारित्रपाहुड की गाथा में लिखते हैं दंसणवयसामाइयपो सहसचित्तरायभत्ते य। भारंभ परिग्गहअणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य ॥२२॥ दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचितत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग, इस प्रकार कुल ग्यारह प्रकार का देशविरत चारित्र कहलाता है। ये श्रावक के संयमाचरण के ग्यारह स्थान हैं, इनको श्रावक की प्रतिमाएं भी कहते हैं। इसका विस्तृत वर्णन आगे भी किया जायेगा। यहाँ केवल बारह व्रतों का संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है पंचेवणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि । सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - इस प्रकार बारह प्रकार का सयंम चरण - चारित्र है, जो गृहस्थों के होता है। इसलिए इनको सागार कहते हैं। यही बात आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है। गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षाव्रतात्मकं चरणम् । पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथा संख्यमाख्यातम् ॥ ५१ ॥ गृहस्थों के अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत रुप तीन प्रकार का चारित्र होता है। उस तीन प्रकार के चारित्र के क्रमशः पाँच, तीन और चार भेद परमागम में कहे गये हैं। जो गृहवास छोड़ने में असमर्थ हैं, ऐसा सम्यग्दृष्टि घर में रहता हुआ पाँच प्रकार के अणुव्रत, तीन प्रकार के गुणव्रत और चार प्रकार के शिक्षाव्रतों का पालन करें। छहढाला में पं. दौलतराम जी ने इस प्रकार कहा है सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दृढ़ चारित्र लीजे । एक देश अरु सकल देश, तसु भेद कहीजे ॥ हे भव्यो ! आत्मज्ञान की सिद्धि के लिए सांसारिक सभी झंझटों से दूर रहना ही ठीक है, ऐसा जानकर सम्यक् चारित्र धारण करो । उस सम्यक् चारित्र के दो भेद हैं- देशचारित्र और 193
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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