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अष्टम अध्याय : सम्यक्चारित्र वीतराग सर्वज्ञ जिन बंदू मन वच काय।
चारित धर्म बखानियो सांचो मोक्ष उपाय। सर्वप्रथम मंगल के लिए इष्टदेव को नमस्कार करके, चारित्र धर्म को अपना कर, मोक्ष का सम्यक उपाय बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्द देव चारित्र धर्म को बतलाने की प्रतिज्ञा करते हैं। वे लिखते हैं कि सम्यक्चारित्र आत्मा का परिणाम है। सम्यक्चारित्र अंगीकार करने पर सम्यक्दर्शन आदि परिणाम निर्दोष होते हैं। चारित्र मोक्ष के आराधन का कारण है।
दर्शनमोह रूप अंधकार के दूर होने पर सम्यक्दर्शन के प्रगट होने पर जिसे सम्यग्ज्ञान की भी प्राप्ति हो गई है, ऐसा सत्पुरुष, जो निकट भव्य है, उसे राग-द्वेष के पूर्ण अभाव के लिए चारित्र स्वीकार करने की आवश्यकता होती है।
राग-द्वेष का अभाव होने पर हिंसादि पाँचों पापों की पूर्ण निवृत्ति या अभाव होना ही सम्यक्चारित्र है। दूसरों शब्दों में हम कह सकते हैं कि जिसे अपने प्रयोजन के लिए किसी भी पदार्थ की अभिलाषा नहीं रह गई है, ऐसा व्यक्ति किसी राजा आदि की सेवा नहीं करेगा। उनकी सेवा वही करेगा जिसे भोगों की चाह हो, धन तथा अभिमान आदि की अभिलाषा हो। इसी प्रकार जिसके राग-द्वेष का अभाव हो जाता है, वह व्यक्ति हिंसा आदि पाँच पापों में प्रवृत्ति नहीं करता है। यही सम्यक्चारित्र का लक्षण है।
आचार्य कुन्दकुन्द देव संयम आचरण को चारित्र मानने के लिए कहते हैं उन्होंने अष्टपाहुड की चारित्रपाहुड की गाथा में लिखा है
दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिराया।
सायारं सग्गंथे परिग्गहरहिय खलु णिरायारं॥ संयमाचरण, चारित्र के दो भेद हैं-(1) सागार संयमचरण- चारित्र (2) निरागार (अनगार संयम चरण- चारित्र) वस्तुतः सागार चारित्र परिग्रह सहित श्रावक के होता है और निरागार चारित्र परिग्रह से रहित मुनिराज के होता है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि
सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम।
अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम्॥५०॥ समस्त अन्तर-बाह्य परिग्रह से विरक्त जो अनगार अर्थात् गृह-मठादि नियत स्थान रहित वन खण्डादि में परम दयावान होकर निरालम्बी विचरण करते हैं ऐसे ज्ञानी मुनीश्वरों के जो चारित्र होता है वह सकल चारित्र है। जो स्त्री, पुत्र, धन आदि परिग्रह सहित घर में ही निवास करते
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