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स्वीकार करना अपना अपमान समझा हो, इस कारण मैं स्वयं ही वहाँ जाकर उन्हें ये दे आकी इस प्रकार वह स्वयं 1000 स्वर्ण मुद्राएं लेकर उन मुनिराज के पास पहुँचता है और कहता है कि ये स्वर्ण मुद्राएं ले लीजिए। मुनिराज ने फिर वही बात कही जाओ गरीबों में बँटवा दो। अब राजा बोलते हैं कि तुमसे गरीब मुझे और कौन मिलेगा अब मुनिराज उत्तर देते हैं कि हे राजन्! तुम नहीं जानते हम श्रीमन्त हैं हमारे पास अनन्त वैभव का भण्डार है, हम ऐसा तुच्छ परद्रव्य स्वीकार नहीं करते हैं। राजा बोला, मुझे उसकी चाबी दे दीजिए मैं भी वह अनन्त वैभव का भण्डार लँगा। मुनिराज कहते हैं इसके लिए कुछ दिन यहाँ मेरे साथ रुकना होगा तब उसे पा सकोगे राजा बोलता है- हाँ हाँ रह लूँगा। इस तरह राजा मुनिराज के पास रहने लगा। मुनिराज कुछ धर्म का उपदेश उसे देते रहे। कुछ दिन बाद मुनिराज बोलते हैं कि अच्छा तुम्हें मेरा अनन्त वैभव का खजाना देखना है तो मेरे जैसे हो जाओ। राजा ने सोचा यही विधि होगी अनन्त खजाने को देखने की, इसलिए वह मुनिराज बन जाता है। मुनिराज जैसी क्रियायें करने लग जाता है। कुछ दिन बाद मुनिराज बोले राजन्। लीजिए ये धन सम्पदा तो वह पूर्व राजा बोलता है कि प्रभु अब कुछ नहीं चाहिए है धन सम्पदा मुझे तुच्छ लग रही है। अब तो मुझे अपने अनन्त वैभव सम्पन्नता तथा अपने साम्राज्य का पता चल गया। मुझे अपने रत्नत्रय खजाने का पता चल गया। राजा को स्व-संवेदन, आत्मानुभूति हो चुकी थी।
इस प्रकार देखिये किसी की बाहरी स्थिति को देखकर यह निर्णय ही दिया जा सकता कि वह दरिद्र है या श्रीमन्त। ये तो वाह्य स्थितियाँ है। सम्पत्रता की निर्भरता तो अन्तरंग भावों के आधार पर ही की जा सकती हैं।
स्व-संवेदन, आत्मानुभूति के लिए विश्व के अन्य पदार्थों, द्रव्यों को जानना आवश्यक नहीं है, केवल अपनी आत्मा को जानना ही, पर्याप्त है यह बात निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट हो जाती है
क्षत्रिय और वैश्य में लड़ाई हो गयी क्षत्रिय को वैश्य ने हरा दिया। वैश्य क्षत्रिय की छाती पर सवार को गया। उसी समय क्षत्रिय ने वैश्य से पछा- "तम कौन हो?" वैश्य ने उत्तर दिया"- मैं वैश्य हूँ।" क्षत्रिय ने ऐसा सुनते ही साहस पूर्वक उसे नीचे गिरा दिया। लड़ाई से पूर्व वह यह नहीं जानता था कि वह वैश्य है। ठीक उसी प्रकार जब हमें मालूम पड़ जाता है कि कर्म कषाय पर निर्भर हैं और वे हमें संसार में नाना प्रकार के कष्ट दे रहे हैं। हम ही उन्हें दूर कर सकते हैं। ऐसा करना कठिन बात नहीं है। यही भेद विज्ञान है इसी आत्मज्ञान से स्व-संवेदन होता है। इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द देव समयसार में इस प्रकार कहते हैं
अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाण मइओ सदारूवी।
णवि अस्थि मज्झं किंचिवि अण्णं परमाणु भेत्तंपि॥ मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ एवं सदा ही ज्ञान-दर्शनमय अरूपी तत्व हूँ मुझसे भिन्न अन्य समस्त द्रव्य लेश मात्र भी मेरे नहीं हो सकते हैं अर्थात् मैं समस्त पर-द्रव्यों से भिन्न, ज्ञान दर्शन स्वरूपी, अरूपी, एक परम शुद्ध तत्त्व हूँ। अन्य पर द्रव्यों से मेरा कुछ भी संबंध नहीं है।
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