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________________ मूलोत्तरगुण पालन की क्रिया करते हैं वे शुद्धोपयोग से रहित होने से मोक्षमार्ग में स्थित नहीं हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसार में लिखते हैं कि जह णाम कोवि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सहदहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण॥ एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सहहे दव्यो। अणुचरिदव्यो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण॥ जिस प्रकार कोई धनार्थी व्यक्ति राजा को जानकर उसपर श्रद्धान करता है और साथ ही उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण भी करता है उसी प्रकार मोक्ष के अभिलाषियों को जीवरूपी राजा को जानना चाहिए उसपर श्रदान करना चाहिए एवं उसी का अनसरण भी करना चाहिए और उसी में तन्मय हो जाना चाहिए। ____ आत्मार्थियों को सबसे पहले निज भगवान आत्मा को जानना चाहिए फिर यह श्रद्धान करना चाहिए कि यह भगवान आत्मा मैं ही हूँ। इसके पश्चात् उसी में लीन हो जाना चाहिए क्योंकि निज भगवान आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान ही निश्चय नय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र हैं। ये ही रत्नत्रय भंडार हैं अन्य वाह्य सम्पदा जीव की कण मात्र भी सम्पदा नहीं है। स्वसंवेदन ही इसका मूल कारण है इस बात को निम्न दृष्टान्त द्वारा भी समझा जा सकता है सम्पन्नता का राज एक मुनिराज किसी जंगल में तपश्चरण करते थे। एक बार एक राजा वहाँ से गुजर रहा था उसने उनकी निर्ग्रन्थ मद्रा देखकर सोचा कि यह तो बहत दरिद्र है. उनके पास कछ भी नहीं है अत: हमें इनकी कुछ सहायता करना चाहिए ऐसा विचार कर राजा ने अपने मंत्री को 100 स्वर्ण मुद्राएं उस दरिद्र जंगल वासी साधु को देने को कहा। मंत्री ने साधु से कहा, कि राजा ने ये मुद्राएं आपके लिए भेजी हैं। इसे लेकर आप अपनी दरिद्रता दूर कर लें, यह सुनकर मुनिराज कहते हैं इन्हें गाँव में बाँट दो। राजा का मंत्री राजा के पास पहुंचता है और साधुका उत्तर बताता है, राजा सोचते हैं कि शायद यह मुद्राएं कम हैं इसलिए उस दरिद्र ने स्वीकार नहीं की। राजा ने कहा 200 मुद्रा भेजी जायें इस तरह वह पुनः 200 मुद्राएं मंत्री के हाथ भेजता है। मंत्री साधु के पास जाता है और मुद्राएं स्वीकार करने के लिए कहता है किन्तु इस बार भी उस साधु ने वही उत्तर दिया कि जाओ इन्हें गरीबों में बाँट दो। मंत्री फिर राजा के पास आकर कहता है कि उसने स्वर्ण मुद्राएं स्वीकार नहीं की है। अब राजा सोच में पड़ जाता है कि क्या कारण है कि वह मद्राएं स्वीकार नहीं करता है। वह सोचता है, शायद उसने मंत्री के हाथों स्वर्ण मद्राएं - 190
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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