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________________ __ हे मेरे प्रिय मित्र! जब तक तुम्हारे शरीर को कोई रोगादि नहीं घेर लेता है, पराधीन कर डालने वाला बुढ़ापा जब तक तुम्हारे पास नहीं आ जाता है, प्रसिद्ध शत्रु यमराज का डंका जब तक नहीं बज जाता है और बुद्धि रूपी पलि जब तक तुम्हारी आज्ञा मानती है बिगड नहीं जाती है, उससे पहले तुम अपना आत्मकल्याण अवश्य कर लो अन्यथा बाद में तुम्हारी शक्ति क्षीण हो जायेगी तब क्या कर पाओगे, औं आग लगने से पहले ही खोद लेना चाहिए जब आग लग जाय और झोंपड़ी जलने लगे तब कुआँ खोदने से क्या होगा आचार्य कुन्दकुन्द देव समयसार में कहते हैं कि परमटुम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्वं बालतवं बालवदं विंति सव्वण्हू॥42॥ जो परमार्थ में अर्थात् शुद्धात्मानुभूति में स्थित नहीं है और तप करता है तथा व्रतों को ध रण करता है उन सब तपों और व्रतों को सर्वज्ञ देव बालतप या अज्ञानतप या बालव्रत या अज्ञानव्रत कहते हैं। ___इससे सिद्ध होता है कि शुद्धात्मानुभूति से रहित अणुव्रत या महाव्रत प्रशमादि भाव मिथ्यात्व गुणस्थान में ही दिखाई देते हैं। शुद्धात्मानुभूति से रहित जो जीव है वह मोक्ष मार्गस्थ नहीं है और जो शुद्धात्मानुभूति से सहित है वह सम्यक्त्वी हैं, वही मोक्षमार्ग में स्थित हैं अतः स्वसंवेदन ही इसका मूल है। यही बात आचार्य समन्तभद्र स्वामी रत्नकरण्डश्रावकाचार में इस प्रकार कहते हैं गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः॥5॥ दर्शनमोह से रहित या शुद्धात्मानुभूति वाला अव्रती गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है, लेकिन दर्शनमोह सहित या शुद्धात्मानुभूति से रहित महाव्रत धारी मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं हैं। इसलिए शुद्धात्मा वाला अव्रती गृहस्थ शुद्धात्मानुभूति से रहित सर्व प्रकार के महाव्रतों का पालन करने वाले मुनि से श्रेष्ठ है। ___ दूसरे शब्दों में स्वसंवेदन मुनि को होता ही है गृहस्थ को भी होता है। मुनि को स्वसंवेदन उत्कृष्ट रूप से होता है किन्तु गृहस्थ को यह आंशिक रूप से होता है। __इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि शुद्धात्मानुभूति से, स्वसंवदेन से ही मोक्षमार्ग शरू होता है। जिस समय शद्धात्मानभव होता है उसी समय श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र तीनों में समीचीनता आती है। जो शुद्धात्मानुभूति से रहित दान, पूजादि, अणुव्रत की क्रिया और 189 %3D
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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