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सम्यग्ज्ञान के क्रमशः चार सोपानों पर विचार निबद्ध हैं। अहम अध्याय में सम्यक् चारित्र का स्वरूप, अणुव्रती महाव्रती के लिए आवश्यक संयम, अणुव्रत महाव्रत, दिग्व्रत, देशव्रत आदि के विशेष विवरण सहित सम्यक् चारित्र को अशुभ से निवृत्ति-शुभ में प्रवृत्ति दर्शन ज्ञान की एकता, समता शमता और आत्मा में स्थिरता इन चार सोपानों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। नवम अध्याय 'दिगम्बर मुनिराज ' में दिगम्बरत्व का स्वरूप, अन्य मतों में दिगम्बर साधु दिगम्बर मुनिराजों की संख्या आदि बताते हुए मुक्ति के लिए आवश्यक दिगम्बरत्व के महत्त्व का आकलन किया गया है। दशम अध्याय व्रतों से सम्बन्धित है, जिसमें अणुव्रतों और महाव्रतों का विशद विवेचन है। एकादश अध्याय में गृहस्थों के षट् आवश्यक देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम तप और दान पर आचार्य श्री के विचारों का सटीक प्रतिपादन है। इसमें वर्तमान में प्रचलित कुप्रथाओं, निर्वाण लाडू, दीपक आरती अखण्ड ज्योति, आशिका लेना, पञ्चामृत अभिषेक आदि की समीक्षा पूर्वक जिनभक्तों को मूल आम्नाय से संयोजन हेतु सम्यक् उपासना पद्धतियों पर गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया गया है। राग से वैराग्य पथ पर चलकर मुक्ति कैसे प्राप्त करें, इसका सदृष्टान्त विवेचन अन्तिम द्वादश अध्याय में है।
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जैनदर्शनसार के द्वितीय भाग में सात अध्याय हैं। ग्रन्थ का प्रारम्भ प्रथम भाग की तरह शास्त्र मङ्गलाचरण और जिनवन्दना से होता है 'प्रथम अध्याय गुणस्थान' में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप, गुणस्थानों में जीवों की संख्या, कर्मोदय सम्बन्धी सामान्य नियम सत्ता काल मरण आदि का विस्तृत विवेचन है। द्वितीय अध्याय मार्गणाओं और ठाणाओं विषयक है। बारह भावनाओं और सोलहकारण भावनाओं का मार्मिक स्पष्टीकरण तृतीय अध्याय में है। धर्म का स्वरूप, उसके उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि दश धर्मो तथा क्षमावाणी का चतुर्थ अध्याय में प्रतिपादन मानव कल्याण के लिए अत्यन्त उपादेय है। पंचम और षष्ठ अध्यायों में क्रमशः षट् लेश्याओं और कषायों का दिग्दर्शन है। पर्व नामक सप्तम अध्याय में रक्षाबन्धन दीपावली भगवान महावीर जयन्ती और वीर शासन जयन्ती पर आचार्य श्री के व्याख्यान निबद्ध हैं।
मङ्गलाचरण और जिनवन्दना से 'जैनदर्शनसार' तृतीय भाग का भी प्रारम्भ होता है। इसके प्रथम अध्याय में राम, सीता, सूर और तुलसी आदि के दृष्टान्त देकर मोहनीय कर्म की विचित्रता पर प्रकाश डाला गया है। द्वितीय अध्याय में कतिपय शलाका एवं पुराण पुरुषों के चारित्र का प्रतिपादन है। ऐतिहासिक प्रमुख आचार्यों और विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आंकलन तृतीय अध्याय में किया गया है । 'जैन तथा अन्य भारतीय दर्शन' नामक चतुर्थ अध्याय में स्याद्वाद, अनेकान्त, सप्तभङ्गी, द्रव्य, गुण और पर्याय आदि जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों के विवेचन पूर्वक न्याय, वैशेषिक योग, चार्वाक आदि अन्य भारतीय दर्शनों का सामान्य परिचय दिया गया है। पंचम अध्याय में पंचपरमेष्ठी का स्वरूप, पांच लब्धियों, भोग से योग की ओर, ज्ञान धारा और कर्मधारा, लोक और संसार में अन्तर योग नहीं गुप्ति शान्ति कहां इन्द्रिय अतीन्द्रिय आनन्द में अन्तर सप्त व्यसन मूर्ति पूजन तथा ध्यान के स्वरूप पर आचार्य श्री के विचार निबद्ध हैं।
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सम्पूर्ण ग्रन्थ के तीनों भागों के अवलोकनोपरान्त हमारे विश्वास को स्थायित्व एवं संबल मिला है कि जिनभक्तों के लिए ये भागत्रय मोक्षमार्ग में रत्नत्रय की तरह सहायक होंगे। उसमें जो भी, जिस रूप
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