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________________ मोहनीय के उदय से जब कभी, हमारे पग डगमगाएंगे, हमें सावधान भी रखेगी।' गुरुदेव अपनी शिष्य मण्डली की प्रार्थना को अस्वीकार नहीं कर सके और उन्होंने अपने भक्तों के अन्तरङ्ग से प्रसूत आग्रह को स्वीकार कर लिया। राग और अहमन्यता के बिना, स्वान्तःसुखाय लिपिबद्ध किया गया अनुभव/संग्रह यदि परकल्याण का कारण बन जाये तो एक सन्त के लिए इससे बढ़कर और क्या प्रसन्नता होगी। विभिन्न स्थानों पर प्रदत्त आचार्य श्री के प्रवचन, जो अपनी ज्ञानवृद्धि के लिए उनके अन्तेवासी शिष्यों द्वारा लेखनीबद्ध कर लिये गये थे, उनको भी इस ग्रन्थनिधि के साथ संयुक्त कर लिया गया है। इस पुनीत कार्य में अग्रणी आचार्य श्री के साथ छाया की भांति रहते ब्र० रिपुदमन प्रवचनों को व्यवस्थित रूप देते रहते। सुश्री निधि जैन मुजफ्फरनगर ने भी इस ग्रन्थ के संयोजन में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है। भारत की राजधानी के समीपस्थ औद्यौगिक नगरी गाजियाबाद के मध्य स्थित कविनगर के श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर में आचार्य श्री का पावन वर्षायोग 2002 सभी को कृत्यकृत्य कर गया। इस अवधि में ब्र० राजकुमार जैन, रघुवरपुरा, दिल्ली. बालब्रह्मचारी श्री मुकेश जैन एवं ब्र० रेणु जैन, मेरठ ने अहर्निश अथक प्रयास करते हुए समस्त विषयवस्तु को प्रेस कापी का रूप दे दिया। सौभाग्य से गाजियाबाद में अवस्थित होने के कारण हम लोग भी गुरु आशीष रूपी मेष की शत-सहस्र धाराओ से अभिसिञ्चित. अभिभूत हो गये। षट्खण्डागम तुल्य इस जैनदर्शनसार ग्रन्थ के ज्ञानकोष से ज्ञानवृद्धि करते हुए अपनी अल्पज्ञता का पूर्ण अनुभव होते हुए भी 'तेरा तुझको अर्पण' की भावना से सपृक्त हो उनके व्यक्तित्व को प्रमुख मानकर विषयगत वैचारिक गम्भीरता के अनुरूप विवेचन को हम लोगों ने 'जस का तस' रखा है। तीन भागों में विभक्त इस विशाल ग्रन्थ में आचार्य श्री ने प्रायः जैनधर्म-दर्शन की सभी सूत्र सलिलाओं को समाहित किया है। प्रथम भाग में बारह अध्याय हैं। शास्त्र मङ्गलाचरण, विभिन्न ग्रन्थों के मङ्गलाचरण, जिनवन्दना, जिनवाणी स्तुति और गुरुभक्ति के पश्चात् प्रथम अध्याय में वक्ता एवं श्रोता के स्वरूप को विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है कि सच्चे वक्ता तो वीतरागी जिन-अर्हन्त ही है एवं लौकिक वक्ता भी वही हो सकता है जो आकर्षक व्यक्त्वि का धनी. बुद्धिमान और आचार सम्पन्न हो। श्रोता को भव्य, जिज्ञासु, आदि सापेक्षिक दृष्टि वाला होना चाहिए। 'पतित से पावन तक' द्वितीय अध्याय में मानव के प्रकार धर्म, कर्म और पुरुषार्थ पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। ततीय अध्याय मिथ्यात्व से सम्बन्धित है, जिसमें मिथ्यात्व के भेद, प्रभेदादि की चर्चा पूर्वक बताया गया है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए मिथ्यात्व को कैसे दूर करें। चतुर्थ से अष्टम अध्याय तक क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विशद वर्णन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में सम्यग्दर्शन के चार सोपान, तत्त्वों का श्रद्धान. स्व पर की यथार्थ श्रद्धा और सम्यक्त्वाचरण के बाद यथार्थ श्रद्धान के लिए आवश्यक जीव, अजीव प्रभृति सात तत्त्वों का पंचम अध्याय में स्वतंत्र विवेचन किया गया है। सम्यक्त्व, उसके दोष तथा नि:शंक, नि:कांक्ष, निर्विचिकित्सा आदि आठ अंगों का सदृष्टान्त विवरण षष्ठ अध्याय में है। सम्यग्ज्ञान नामक सप्तम अध्याय में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप महत्त्व प्रयोजन और प्रमाण-नय के भेद प्रभेदादि की चर्चा के बाद, स्वाध्याय, नौ पदार्थ, स्वपर भेद विज्ञान और स्वसंवेदन ज्ञान के रूप में xxiil
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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