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________________ अनायास सहज ही हो जाती है। यह जीव मुनिव्रत को धारण कर अनन्त बार नवग्रैवेयक तक में उत्पन्न हो चका है तथापि अपनी आत्मा के यथार्थ ज्ञान के बिना इसने लेशमात्र भी यथार्थ सुख नहीं पाया। आत्मज्ञान के बिना स्व-संवेदन का होना संभव नहीं है तथा स्वसंवेदन के बिना सच्चा सुख आत्मानन्द का होना भी असंभव है। इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश के विषय में सबसे बड़ा अन्तर केवल यही है कि ज्ञानी को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है किन्तु अज्ञानी आत्मज्ञान से अनभिज्ञ रहता है। ज्ञानी किस प्रकार का चिन्तन करता है, किस प्रकार का ध्यान करता है इस बात को पं० दौलतराम जी ने छठवीं ढाल में इस प्रकार कहा है निज माँहिं निज के हेतु निजकर, आपको आपै। गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मंझार कछु भेदन रह्यो। जब जीव अपने आत्मा में अपने आपको आप ही जान लेता है तो उस समय ध्यान में, अनुभव में, यह गुण है और यह गुणी है तथा यह ज्ञाता है, यह ज्ञान है और यह है इस प्रकार का कुछ भेद नहीं रह जाता है, सब विकल्प मिट जाते हैं इस प्रकार ज्ञानी के ज्ञान की प्रक्रिया चलती है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द देव प्रवचनसार में कहते हैं किप्रथमोपशम अविरत सम्यक्त्व अथवा क्षयोपशम अविरत सम्यक्त्व, क्षायिक अविरत सम्यक्त्व का प्राप्त होना, शुद्धआत्मा का अनुभव कहा जाता है। इसी को और स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो जाणदि अरहन्तं दव्वत्त गुणत्त पन्जयत्तेहिं। सो जाणदि अप्याणं मोहो खलु जादि तस्स लय।। 80॥ जो अरहंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने के द्वारा जानता है वह अपने आप को जानता है, उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त हो जाता है। आत्मज्ञान होने में कारण क्या है, जगह-जगह शास्त्रों में उसको क्यों स्पष्ट किया गया है, कि आत्मज्ञान से स्वसंवेदन होता है और इसे प्राप्त करने में श्रद्धा ही मूलकारण होती है। इसको निम्न दृष्टान्त से समझा जा सकता है। आत्मदीप उपलब्धियों का मूल किसी नगर में एक राजा अपने जीवन के अन्तिम दिनों से गुजर रहा था, वस्तुत: उसके केवल दो पुत्र थे दोनों ही बहुत योग्य थे। उसने सोचा कि परम्परानुसार बड़े पुत्र को राज्यभार सौमूं या योग्यतानुसार किसी एक पुत्र को राज्य दूँ। इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि कैसे निर्णय = 186
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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