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समताभाव ग्रहण करता है और विकल्प रहित अपना पद पाता है तथा निर्मल, शुद्ध, अनंत, अचल और परम अतीन्द्रिय सख प्राप्त करता है।
सम्यग्ज्ञान का चौथा सोपान : स्वसंवेवन ज्ञान चित्र खौं छोड़ विचित्र भजों नित, विचित्र को चित्र विचित्र लख्यौ है। चित्र विचित्र खौं न्यारौ करो, तो फिर स्वाद अनूप चख्यौ है। जग के जीव तो चित्र लखै, कहाँ पावे चित्र भजन की कला।
जब चित्र में ही मन रच गयौ, तब काहे विचित्र में जाये भला॥ चित्र का अर्थ होता है पुद्गल एवं विचित्र का अर्थ होता है आत्मा। इसलिए पुद्गल का त्यागकर आत्मा की ही प्रतिदिन आराधना करनी चाहिए। आत्मा को यह पुद्गल अद्भुत ही लगता है, इस पुद्गल और आत्मा को पृथक करो, इसके पृथक करने पर एक अनुपम, अद्वितीय, अलौकिक स्वाद का आस्वाद प्राप्त होता है। संसार के प्राणी तो पुद्गल को ही देखते हैं, पुद्गल को त्याग न करने की स्थिति होने पर भेद विज्ञान का ज्ञान उन्हें कहाँ से प्राप्त हो? चूँकि जब मन पुद्गल में ही अनुरक्त हो रहा है तब आत्मा में प्रविष्ट होकर वह आत्मानुभूति भला कैसे करे?
स्वसंवेदन ज्ञान अर्थात् वह ज्ञान जिसके द्वारा आत्मानुभूति होती है, सम्यग्ज्ञान का चौथा सोपान है। जब स्व और पर का भेदज्ञान जीव को हो जाता है तब आत्मानुभूति का अनुभव तथा इससे प्राप्त आनन्द की प्राप्ति होती है तब संसारी जीव संसार-शरीर भोगों में आसक्त नहीं होता क्योंकि तब जीव को ये सब तुच्छ दिखने लगते हैं, जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि विषयानन्द, भोगानन्द, भोजनानन्द, इन्द्रियानन्द, लोकानन्द, इच्छानन्द, गृहानन्द आदि समस्त आनन्दों से परे नित्यानन्द है यही परमानन्द है इस आनन्द के परे अन्य कोई आनन्द नहीं है अन्य सम्पूर्ण आनन्द क्षणिक हैं नश्वर हैं। सम्यग्ज्ञान द्वारा ही स्वसंवेदन होता है इसको पं० दौलतराम जी छहढाला की चतुर्थढाल में स्पष्ट करते हैं कि -
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरै जे। . ज्ञानी के छिनमाँहि, गुप्तितै सहज टरै ते॥ मुनिव्रत धार अनन्त वार, गैवेयक उपजाओ।
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो॥ सम्यग्जान के बिना अज्ञानी जीव करोडों जन्मों में तप करके जितने कर्मों की निर्जरा करता है उतने कर्मों की निर्जरा ज्ञानी पुरुष के मन, वचन, काय को वशमें करने से एक क्षण भर में
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