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अपने मन की बुद्धि दूर होते ही आनन्द की लहरें आने लगेंगी। इस ममत्व रूपी पिशाचनी ने कितनों को इस संसार में डुबोया है, मोह में ही जीवों ने अनन्तानन्त भव बिता दिये फिर भी ममत्व बुद्धि नहीं गयी । इसीलिए कहा है
उत्तमा स्वात्मचिंता स्यात् देही चिंता च मध्यमा। अधमा कामचिंता स्यात् परचिंताधमोऽधमा ॥
अपने आत्मा की चिन्ता उत्तम है, शरीर की चिन्ता मध्यम है, विषयों की चिंता अधम है और दूसरों की चिंता अधम भी अधम है।
आत्मा और शरीर का संबंध अनादिकाल से एक होकर भी किस प्रकार अलग है यह आचार्य देव निम्न श्लोकों द्वारा स्पष्ट करते हैं
पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथा तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये यथा शिवः ॥
घृतम् ।
जैसे पत्थर में सोना रहता है, दूध में घी रहता है, तिल में तेल रहता है उसी प्रकार शरीर में यह आत्मा रहती है।
काष्ठमध्ये यथा बह्निः शक्तिरूपेण तिष्ठति । अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति स पण्डितः ॥
जिस प्रकार लकड़ी में शक्ति रूप अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर में आत्मा रहती है जो ऐसा जानता वह पण्डित है।
नलिन्यां च यथा नीरं, भिन्नं तिष्ठति सर्वदा । अयमात्मा स्वभावेन, देहे तिष्ठति निर्मलः ॥
जिस प्रकार कमल में जल सर्वदा भिन्न रहता है उसी प्रकार आत्मा भी स्वभावत: शरीर से भिन्न रहती हुई, शरीर में रहती है।
उपर्युक्त सभी तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि अपनी आत्मा के अलावा अन्य आत्माऐं व अन्य सभी द्रव्य भिन्न हैं ऐसा जानना ही स्व-पर भेद ज्ञान है। जैसा निम्न सवैये से भी स्पष्ट होता है कि स्व-पर भेद ज्ञान ही मोक्ष को दिलाने वाला है।
प्रगति भेद विग्यान, आप गुन परगुन जानै । पर परनति परित्याग, सुद्ध अनुभौ थिति ठानै ॥ करि अनुभौ अम्यास, सहज संवर परगासै। आश्रव द्वार निरोधि, करमघन- तिमिर विनासै ॥
छय करि विभाव समभाव भजि, निरविकल्प निज पद गहै। निर्मल विसुद्ध सासुत सुथिर, परम अतीन्द्रिय सुख लहै ॥ भेदविज्ञान आत्मा के और पर द्रव्यों के गुणों को स्पष्ट जानता है, पर द्रव्यों से अपनत्व छोड़ शुद्ध अनुभव में स्थिर होता है और उसका अभ्यास करके संवर को प्रगट करता है, आस्रव द्वार का निग्रह पूर्वक कर्म जनित महाअंधकार नष्ट करता है, राग-द्वेष आदि विभाव छोड़कर
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